मंगलवार, 19 सितंबर 2017

स्वामी विवेकानंद

स्वागत है आपका हमारे इस खास कार्यक्रम टाइम मशीन में... मैं हूं... हम आज आपको परिचय करवाएंगे देश की एक ऐसी ओजस्वी और तेजस्वी शख्सियत से जो आज भी हमारे लिए आदर्श का श्रोत है... एक ऐसा श्रोत जो भारत में समाज सुधार की... धर्म की...अध्यात्म की...दर्शन शास्त्र की... प्रगतिशील विचारों की...जब भी बात होती है तो उनके बिना वो बात हमेशा अधूरी मानी जाती है.....
कहां खोजते हो भला? मुक्ति.... मित्र यह विश्व दे सकता तुम को नहीं, ग्रन्थ और मंदिर में... खोज तुम्हारी व्यर्थ... हाथ तुम्हारे ही सदा मुक्ति की है डोर.. छोड़ो रोना और फिर त्यागो सारे मोह... सन्यासी निर्भीक गाओ ॐ तत्सत ॐ... ये अनुवाद है स्वामी विवेकानंद की अंग्रेजी कविता "द सांग ऑफ़ सन्यासी" का...और भारत के यहीं महान दर्शन शास्त्री...धर्म-गुरु...शिक्षाविद स्वामी विवेकानंद है हमारे आज के ओजस्वी और तेजस्वी शख्सियत...
कौन नहीं जानता स्वामी विवेकानंद को... भारत ने उन्हें सन्यासी कहा तो अमेरिका में उनका नाम पड़ा साइक्लोनिक हिन्दू का... टाटा समहू के पितामह ने उनसे शिक्षा के प्रचार प्रसार का ज्ञान लिया तो कर्मकांडियों के लिए स्वामी विवेकानंद बनकर उभरे एक विद्रोही के तौर पर.. भारत में समाज सुधार की... धर्म की...अध्यात्म की...दर्शन शास्त्र की...प्रगतिशील विचारों की...जब भी बात होती है तो स्वामी विवेकानंद के बिना वो चर्चा हमेशा अधूरी मानी जाती है.... भारतीय अध्यात्म से पूरे विश्व को परचित कराने वाले स्वामी विवेकानंद ने आधुनिक भारत के सबसे बड़े दार्शनिक...फिलॉस्फर...धर्म गुरु थे... स्वामी विवेकानंद दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य विषयों में खासी रुचि रखते थे... उन्होंने वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त हिन्दू शास्त्रों का भी गहन अध्ययन किया था.. बचपन से ही आध्यात्मिकता की ओर झुकाव रखने वाले स्वामी विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से बेहद प्रभावित थे... स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से सभी जीवों को परमात्मा का अवतार मानते हुए सभी की सेवा करना सीखा और उसी को परमात्मा की सेवा करना माना... गुरु के देहांत के बाद स्वामी विवेकानंद ने भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में कई यात्राएं की..... और फिर 1893 में विश्व धर्म संसद में देश का प्रतिनिधित्व करते हुए ऐतिहासिक भाषण में समूचे मानव समाज को 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की शिक्षा दी... 25 वर्ष की आयु में गेरुआ वस्त्र धारण कर लेने वाले स्वामी विवेकानंद ने पैदल ही पूरे देश की यात्रा भी की थी... अपने ऐतिहासिक भाषण के बाद वह तीन वर्ष तक अमेरिका में ही रहे थे.. 39 वर्ष की आयु में ही संसार को त्याग गए स्वामी विवेकानंद का मानना था कि अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना सारी दुनिया अनाथ होकर रह जाएगी...
स्वामी विवेकानंद, जिनका नाम आते ही मन में श्रद्धा और स्फूर्ति दोनों का संचार होता है। श्रद्धा इसलिये, क्योंकि उन्होंने भारत के नैतिक एवं जीवन मूल्यों को विश्व के कोने-कोने तक पहुंचाया और स्फूर्ति इसलिये क्योंकि इन मूल्यों से जीवन को एक नई दिशा मिलती है.. 12 जनवरी, सन 1863 को कलकता में जन्मे स्वामी विवेकानंद में वह सभी गुण समाहित थे, जो उन्हें महान् से महानतम बना दिया..
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था...बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था... एक कायस्थ परिवार में जन्मे स्वामी विवेकानंद के पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील थे... वो चाहते थे की उनका बेटा नरेंद्र अंग्रेजी पढ़े...जबकि बचपन से ही नरेंद्र का मन वेदों की तरफ ज़्यादा था... जब नरेंद्र की उम्र आठ साल थी तब उनका दाखिला ईश्वर चंद्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटियन इंस्टिट्यूट में करवाया गया... 1889 में उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज का एंट्रेंस एग्जाम दिया... और परीक्षा को फर्स्ट डिवीज़न से पास करने वाले वो पहले विद्यार्थी बने... दर्शन शास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक ज्ञान, कला और साहित्य सभी विषयों के वो बड़े उत्सुक पाठक थे... बचपन से ही हिन्दू धर्म ग्रंथो में उनकी बहुत रूचि थी... स्वामी विवेकानंद हमेशा योग..खेल और दूसरी एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज में भी हमेशा पार्टिसिपेट करते थे... भारतीय आध्यात्म... भारतीय दर्शन...और भारतीय धर्म के साथ-साथ नरेंद्र की दिलचस्पी वेस्टर्न फिलॉसोपी...पश्चमी जीवन...और यूरोपियन इतिहास में भी बहुत थी...उस ज़माने के सभी जाने-माने वेस्टर्न रइटर्स डेविड Hume ...Immanuel Kant… John Stuart Mil और Charles डार्विन का उन्होंने बहुत गहन अध्ययन किया था... तभी तो उस ज़माने के जाने-माने शिक्षाविद और फिलॉस्फर William Haste ने एक जगह लिखा है की "नरेंद्र बहुत होशियार है और मैंने दुनिया भर के स्टूडेंट्स को देखा है...अलग-अलग यूनिवर्सिटीज में गया हूँ...लेकिन जब फिलॉसफी का सवाल आता है...दर्शनशास्त्र का सवाल आता है...तो नरेंद्र के दिमाग के आगे मुझे कोई और स्टूडेंट नहीं दिखता..."
नरेंद्र या स्वामी विवेकानंद बहुत ही ब्राइट स्टूडेंट थे...लेकिन उनका मन मटेरियल चीज़ों में नहीं था...सांसारिक मोह माया के पीछे वो नहीं भागते थे...लेकिन जब तक उनके पिताजी ज़िंदा थे...स्वामी विवेकानंद का मन पूरी तरह से दीन-दुनिया से अलग नहीं हुआ था...उनका मोह भंग नहीं हुआ था...वेदांत में..योग में..इन सब में तो उनकी दिलचस्पी पहले भी थी...लेकिन जब पिता की मृत्यु हुई...तो स्वामी विवेकानंद का मन दीन-दुनिया से उठ गया...उन्होंने अपना जीवन गुरुदेव राम कृष्ण को समर्पित कर दिया... 25 साल की उम्र में नरेंद्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए और बन गए एक सन्यासी.. स्वामी विवेकानंद आजीवन एक संन्यासी के रूप में रहे और देश-समाज की भलाई के लिए काम करते रहे.. अपने ज्ञान के बल पर स्वामी विवेकानंद विश्व विजेता बने.. वे हिन्दुस्तान के एक ऐसे संन्यासी रहे हैं, जिनके संदेश आज भी लोगों को उनका अनुसरण करने को मजबूर कर देते हैं... स्वामी विवेकानंद एक ऐसे संन्यासी का नाम है जिनके अनुयायी देश ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर कोने में नजर आते हैं.. और एक ऐसा संन्यासी जिनका एक वक्तव्य पूरी दुनिया को अपना कायल बनाने के लिए काफी होता था।विवेकानंद ने ऐसा क्या किया की भारत के लिए समुचे विश्व में एक नया सम्मान का दृष्टिकोण पैदा हुआ...क्यों स्वामी विवेकानंद की नज़र में एक नगरवधु थी सबसे शुद्ध आत्मा...किस तरह से स्वामी विवेकानंद ने विजय प्राप्त कर ली थी अपने दिल और अपने दिमाग पर...कैसे स्वामी विवेकानंद अपने कंसंट्रेशन पावर से दिमाग पर विजय पा कर एकाग्रचित्त होकर कई काम एक साथ करने की क्षमता रख पाते थे... यहां रूकेंगे एक ब्रेक के लिए कहीं मत जाएगा तुरंत हाजिर होते हैं...

हिन्दुस्तान में शायद ही कोई ऐसा शख्स होगा.. जिसने स्वामी विवेकानंद का नाम नहीं सुना होगा... बचपन से ही तेजस्वी और मेधावी छात्र पिता के मरने के बाद 25 साल के उम्र में सन्यास ले लिया और फिर उस सन्यासी ने शिकागो में आयोजित एक अंतराष्ट्रीय धर्म सभा में भारतीय दर्शन...भारतीय धर्म...और भारतीय आध्यात्म के झंडे गाड़ दिए...
1893 में शिकागो में विश्व धर्म परिषद् का आयोजन हुआ...स्वामी विवेकानंद वहां पहुंचे भारत के प्रतिनिध्व के बतौर...ये वो दौर था जब यूरोप और अमेरिका के लोग भारतवासियों को बहुत ही हीन दृष्टि से देखते थे... कुछ लोगों का मानना है की उस धर्म परिषद में पहले ये भी तय नहीं था की स्वामी विवेकानंद वहां कोई एड्रेस देंगे... उनका कोई सम्बोधन या भाषण होगा भी... जब कई वेस्टर्न स्कॉलर बोल चुके उनका सम्भोधन हो चुका तो कुछ अमेरिकी प्रोफेसर्स ने इस बात पर ज़ोर दिया अब कुछ मौका पूरब से आने वालो को भी दिया जाए... तब सबका ध्यान गया गेरुआ वस्त्र पहने एक खूबसूरत भारतीय नौजवान पर... जिसका नाम था स्वामी विवेकानंद... जब स्वामी विवेकानंद ने खड़े होकर बोलना शुरू किया और जिस धाराप्रवाह अंग्रेजी में उन्होंने बहुत ही पुरज़ोर तरीके से अपनी बात रखी तो बस भाषण खत्म होने से पहले ही हॉल तालियों से गूंजने लगा था...11 सितम्बर 1893 में शिकागो में हुई विश्व धर्म परिषद में स्वामी विवेकानंद के उस ऐतिहासिक भाषण के कुछ अंश आप भी सुनिए---------------- ये वो भाषण था जिसके बाद दुनियाभर में स्वामी विवेकानंद की ख्याति फैल गयी...3 साल तक उसके बाद स्वामी विवेकानंद अमेरिका में रहे. तभी अमेरिकी मीडिया ने उनका नाम रख दिया 'साइक्लोनिक हिन्दू....
दुनिया ने जिनकी नज़र से...जिनकी विद्वता से भारत को नयी दृष्टि से देखा सम्मान दिया...किस तरह का अनूठा और निराला कंसंट्रेशन पावर था स्वामी विवेकानंद में कि वो अपने मस्तिष्क पे अपने दिमाग पर कण्ट्रोल कर सकते थे...और फिर कर सकते थे मल्टीटास्किंग...तो कैसे बहुत ही अनूठा और ज़बरदस्त कंसंट्रेशन पावर था स्वामी विवेकानंद का...आप भी सुनिए उस किस्से को है...
स्वामी विवेकानंद.... जिनका नाम आते ही मन में श्रद्धा और स्फूर्ति दोनों का संचार होता है.. श्रद्धा इसलिये, क्योंकि उन्होंने भारत के नैतिक एवं जीवन मूल्यों को विश्व के कोने-कोने तक पहुंचाया और स्फूर्ति इसलिये क्योंकि इन मूल्यों से जीवन को एक नई दिशा मिलती है.. एक बार एक मुगल शाशक ने स्वामी विवेकानंद को अपने घर आमंत्रित किया.. राजा ने स्वामी जी को अपने भवन बुलाकर कहा तुम हिन्दू लोग मूर्तियों कि पूजा करते हो...मिट्ठी पीतल की मूर्तियों की... मैं तो ये सब नहीं मानता...ये सब तो एक पदार्थ है...विवेकानंद जी ने राजा को जवाब देने से पहले राजा की ओर देखा और राजा के सिंघासन के पीछे जो तस्वीर लगी थी उसके बारे में पूछा की किसकी है...राजा ने कहा ये मेरे पिताजी की है... विवेकानंद जी बोले आप तस्वीर उतारिये और हाथ में लीजिये...राजा ने उनकी बात मानी...और फिर उन्होंने कहा आप इस तस्वीर पर थूकिये...अब राजा तो आग बबूला हो गए और बोले क्या बात कर रहे है आप स्वामी जी ये मेरे पिताजी की तस्वीर है मैं इस पर कैसे थूक सकता हूँ...स्वामी जी बोले क्यों ये तो एक कागज़ का टुकड़ा है इस पर तो बस कुछ रंग लगा हुआ है...न इसमें कोई जान है आवाज़ है न आत्मा है..न ये सुन सकती है...न बोल सकती है न इसमें हड्डी है न इसमें प्राण है फिर भी आप इस पर थूक नहीं सकते क्यूंकि आप इसमें अपने पिता का स्वरुप देख रहे है...अब जहां तक हिन्दू धर्म की बात है महाराज...वैसे ही हिन्दू भी पत्थर मिट्ठी या धातु की पूजा भगवन का स्वरुप मान कर इसलिए करते है क्यूंकि उनकी नज़र में भगवान कण-कण में है तो मन को एकाग्र करने को मूर्ति पूजन करते है...राजा स्वामी जी के चरणों में गिर गए और माफ़ी मांगी...
लेकिन ये तो भगवान के प्रति स्वामी विवेकानंद प्रेम की बातें थी लेकिन ऐसा एक नगरवधु ने क्या कर दिया कि स्वामी विवेकानन्द जी का पूरा जीवन दर्शन ही बदल गया... कैसे एक नगरवधु ने सिखाया स्वामी विवेकानंद को उनके जीवन का बहुत ही एहम पाठ...बहुत ही रोचक और प्रेरणादायक किस्सा है... आइए जानते हैं..

बात तब की है जब स्वामी विवेकानन्द जयपुर महाराज के यहाँ अतिथि बनकर रुके हुए थे... उनके जाने के वक़्त जयपुर महाराजा ने एक बड़े शानदार जलसे का आयोजन किया...जिसमे कई मशहूर नगरवधुएं भी बुलाई गयी थी... स्वामी जी ने जब सुना वैश्याएं समारोह में आयी है...तो उन्होंने अपने कमरे की कुण्डी अंदर से बंद कर दी और निकलने से बहार मना कर दिया... सब लोग तो चले गए लेकिन एक नगरवधू कमरे के बहार खड़ी रही...और उसने वहां पर गाना शुरू कर दिया...गाने का अर्थ कुछ इस तरह से था की स्वामी जी आप इतनी पवित्र आत्मा है...इतनी बड़ी आत्मा है मैं मानती हूँ कि मैं बहुत बड़ी पापिन हूँ...लेकिन आप मुझसे इतना डर क्यों रहे है...अब जब स्वामी जी ने ये गाना सुना तो जैसे उनकी आँखें खुल गयी...वो कमरे से बहार निकले...नगरवधू का अभिवादन भी उन्होंने स्वीकार किया और बाद में स्वामी जी ने लिखा...ज़रूर मेरे भीतर कोई लालसा रही होगी जिसकी वजह से मैं डर गया था...किन्तु उस औरत ने पूरी तरह मुझे हरा दिया...मैंने कभी नहीं देखी इतनी शुद्ध आत्मा... स्वामी विवेकानंद ने जीवन के अपने अंतिम दिनों तक ध्यान करने की अपनी दिनचर्या को नहीं बदला.. वो रोज़ाना सुबह दो तीन घंटे मेडिटेट करते थे... दमा और शुगर के साथ कई शारीरिक बीमारियों ने उन्हें घेर लिया था...उन्होंने एक जगह लिखा भी कि ये बीमारियां मुझे चालीस वर्ष कि आयु को पार नहीं करने देंगी और उनकी वाणी सच हुई... 4 जुलाई 1902 को स्वामी जी पश्चिम बंगाल बिल्लुर मठ में थे.. बिल्लुर में राम कृष्ण मठ में उन्होंने ध्यान अवस्था में महासमाधि लेकर प्राण त्याग दिए थे... संत विवेकानंद अमर तुम...अमर तुम्हारी पवन वाणी...तुम्हे सदा ही शीश लगाते...भारत के प्राणी प्राणी... नमस्कार