मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

अशोका द ग्रेट

 

इतिहास के पृष्ठभूमि में असंख्य योद्धाओं, शूरवीरों और विजेताओं के बीच मौर्य सम्राज्य के तीसरे शासक सम्राट अशोक का नाम उज्जवल नक्षत्र के भाती दिव्यमान हैं.. सम्राट अशोक भारतीय इतिहास का एक ऐसा चरित्र है जिनकी तुलना विश्व में किसी से नहीं की जा सकती.. जब भी विश्व के शक्तिशाली और महान राजाओं की बात की जाती है तो मौर्य साम्राज्य के तृतीय राजा सम्राट अशोक का नाम पहले आता है.. सम्राट अशोक.. प्रेम, सहिष्णूता, सत्य, अहिंसा एवं शाकाहारी जीवनप्रणाली के सच्चे समर्थक थे, इसलिए उनका नाम इतिहास में महान परोपकारी सम्राट के रूप में भी दर्ज है... मौर्य राज्यवंश प्राचिन भारत का एक शक्तिशाली राजवंश था जिसने भारत पर 137 साल राज किया.. मौर्य राज्यवंश की स्थापना का श्रेय चंद्रगुप्त मौर्य और उसके मंत्री कौटिल्य को दिया जाता है.. मौर्य वंश का सम्राज्य पूर्व में मगध से शुरू होता है जहां आज का बिहार और बंगाल स्थित है.. इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी जिसे आज पटना के नाम से जाना जाता है.. चक्रवर्ती सम्राट अशोक रानी धर्मा और बिंदुसार के पुत्र थे.. मौर्य राजवंश के इतिहास में 274 ईसा पूर्व का कालखंड अशोक का माना जाता है. इसी काल में अशोक को चंडाशोक की उपाधि मिली... जिस अशोक की क्रूरता के कारण उन्हें चंडाशोक कहा गया. इतिहास गवाह है कि उनकी दयालुता और प्रजापालकता के कारण उन्हें देवानांप्रिय के नाम से भी जाना गया... सम्राट अशोक व्यक्तित्व काफी प्रभावशाली था. उन्होंने सिर्फ अपनी वाणी के आधार पर तक्षशिला का विद्रोह शांत करवा दिया... उनकी प्रशासनिक क्षमताएं भी बेहद शानदार थीं... उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर अपना स्थान बनाया था... कुछ इतिहासकारों के मुताबिक अशोक ने सिंहासन के रास्ते में आने वाले अपने सभी भाइयों को मार डाला.. हालांकि इतिहासकारों के एक वर्ग का मानना है कि अशोक ने सिर्फ छह भाइयों की हत्या की थी. हालांकि इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता है... बचपन से ही अशोक में योद्धा वाले गुण दिखाई देने लगे थे तभी महाराज बिन्दुसार ने उन्हें शाही योद्धाओं से प्रशिक्षण दिलवाया.. अशोक प्रशिक्षण के दौरान इतना निपुण हो गये कि एक बार केवल लकड़ी की डंडे से शेर का शिकार कर दिया था.. इसलिए उन्हें एक जिंदादिल शिकारी और साहसी योद्धा भी कहा जाता था.. अशोक की काबिलियत को देखते हुए महाराज बिन्दुसार ने उन्हें उस समय मौर्य साम्राज्य के अवन्ती में हो रहे दंगो को रोकने के लिये भेजा दिया.. उस समय तक्षशिला में यूनानी और भारतीय लोगों की जनसंख्या ज्यादा थी.. सम्राट अशोक के बड़े भाई सुसीम उस समय तक्षशिला का प्रांतपाल था.. सुसीम प्रशासनिक कार्यों में कुशल नहीं था जिसकी वजह से वहां पर एक बहुत बड़ा विद्रोह खड़ा हो गया... जब राजा बिंदुसार को लगा कि विद्रोह को दबाना सुसीम के बस का रोग नहीं है तो बिन्दुसार ने अशोक को विद्रोह को दबाने के लिए तक्षशिला भेजा.. इस समय तक सम्राट अशोक बहुत नाम कमा चुके थे उनकी युद्ध कौशल से करीब करीब सभी लोग परिचित थे और यही वजह रही कि तक्षशिला पहुंचने से पहले ही विद्रोहियों ने विद्रोह को खत्म कर दिया.. सम्राट अशोक के बढ़ते प्रभाव से उसका बड़ा भाई सुसीम घबरा गया क्योंकि उसे लगने लग गया था कि सम्राट अशोक की प्रसिद्धि इसी तरह बढ़ती रही तो वह कभी मौर्य साम्राज्य का सम्राट नहीं बन पाएगा... राजा बिंदुसार की आयु धीरे-धीरे बढ़ रही थी मौर्य साम्राज्य की जनता चाहती थी कि सम्राट अशोक को सिंहासन मिले, लेकिन सम्राट अशोक की राह में सबसे बड़ा रोड़ा था उसका बड़ा भाई सुसीम.. सुसीम से आम जनता परेशान थी.. लेकिन अशोक की योग्यता इस बात का संकेत करती थी कि अशोक ही बेहतर उत्तराधिकारी था.. और अततः चार साल के कड़े संघर्ष के बाद 269 BC में अशोक का औपचारिक रूप से राज्यभिषेक हुआ.. इतिहास के मुताबिक कलिंग जाने के पश्चात वहां के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की पुत्री मत्स्यकुमारी कौर्वकी से सम्राट अशोक को प्रेम हो गया और धीरे-धीरे यह प्रेम विवाह में तब्दील हो गया.. मौर्य साम्राज्य की स्थापना से पहले संपूर्ण भारतवर्ष में नंद साम्राज्य का अधिकार था और इसी नंद साम्राज्य के क्षेत्र में कलिंग भी आता था... कलिंग युद्ध चक्रवर्ती सम्राट अशोक के जीवन में घटित एक क्रांतिकारी घटना थी.. चक्रवर्ती सम्राट अशोक के राज्याभिषेक के 8 वर्षों के पश्चात यह युद्ध हुआ.. ऐसा कहा जाता है कि कलिंग युद्ध चक्रवर्ती सम्राट अशोक के जीवन का प्रथम और अंतिम युद्ध था... एक ऐसा भीषण युद्ध जिसकी कल्पना करना भी मुश्किल है इस युद्ध के बाद सम्राट अशोक पूरी तरह बदल गए। अशोक के 13वें शिलालेख में इस युद्ध की भीषणता और उससे हुए नुकसान का वर्णन मिलता है, इस युद्ध में लगभग 1लाख लोग मारे गए थे, डेढ़ लाख लोगों को बंदी बना लिया गया और लाखों की संख्या में लोग घायल हो गए। इस भीषण युद्ध ने चक्रवर्ती सम्राट को अंदर से झकझोर कर रख दिया जिसके बाद उनका रहन-सहन, सोच विचार पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया.. इस युद्ध के बाद सम्राट अशोक को इतना पश्चाताप हुआ कि उन्होंने फिर कभी युद्ध नहीं करने की शपथ ली और इसी युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था.. इतिहासकार बतलाते हैं कि यही से सम्राट अशोक के जीवन काल में आध्यात्मिक और धम्म विजय युग का आरम्भ हो गया.. इस दौरान सम्राट अशोक ने जनकल्याण के लिए अनेको चिकित्सालय, पाठशाला और सड़कों का निर्माण करवाया। धौली और जौगढ़ शिलालेखों पर लिखे शब्दों से पता चलता है कि युद्ध नीति का त्याग करने और आपस में प्रेम बढ़ाने के लिए चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने दो आदेश जारी किए थे उनके अनुसार प्रजा के साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार किया जाए और जहां तक संभव हो किसी को दंड नहीं दिया जाए। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्म प्रचारकों को नेपाल, श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, मिस्र तथा यूनान भी भेजा.. बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने अपने पुत्र और पुत्री को भी यात्राओं पर भेजा दिया करते थे.. अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली... महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया.. चक्रवर्ती सम्राट अशोक महान द्वारा प्रवर्तित कुल 33 अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिन्हें अशोक ने स्तंभों चट्टानों और गुफाओं की दीवारों में उत्कीर्ण करवाया था। इन अभिलेखों को बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से एक माना जाता है। अशोक के शासनकाल में देश ने विज्ञान और तकनीक के साथ–साथ चिकित्सा शास्त्र में काफी तरक्की की, उसने धर्म पर इतना जोर दिया कि प्रजा इमानदारी और सच्चाई के रास्ते पर चलने लगी.. राज में चोरी और लूटपाट की घटानाएं बिलकुल ही बंद हो गई.. अशोक ने लगभग 36 वर्षों तक शासन किया जिसके बाद लगभग 232 ईसापूर्व में उसकी मृत्यु हुई.. सम्राट अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य राजवंश लगभग 50 वर्षों तक चला.. सम्राटों के सम्राट चक्रवर्ती सम्राट अशोक भारत के सबसे शक्तिशाली एवं महान सम्राट थे.. सम्राट अशोक को ऐसे ही महान नहीं कहा जाता है बल्कि उनका साम्राज्य उत्तर में हिंदूकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक फैला हुआ था... पूर्व दिशा में बांग्लादेश से लेकर पश्चिम दिशा में अफगानिस्तान ईरान तक फैला हुआ था। अगर वर्तमान परिदृश्य में सम्राट अशोक के साम्राज्य की सीमाओं की बात की जाए तो इसमें संपूर्ण भारत के साथ-साथ अफगानिस्तान, नेपाल, पाकिस्तान, भूटान, म्यांमार और बांग्लादेश का अधिकांश हिस्सा शामिल था.. अशोक चक्र जिसको धर्म का चक्र भी कहा जाता था, आज के भारत के तिरंगा के मध्य में मौजूद है.. मौर्य साम्राज्य के सभी बॉर्डर में 40-50 फीट ऊँचा अशोक स्तम्भ अशोक द्वारा स्थापित किया गया.. अशोक नें चार आगे पीछे एक साथ खड़े सिंह का मूर्ति भी बनवाया था जो की आज के दिन भारत का राजकीय प्रतिक हैं.. आप इस मूर्ति को भारत के सारनाथ म्यूजियम में देख सकते हैं... सम्राट अशोक ने अपने आदेशों और आदर्शों को लोगों तक पहुंचाने के लिए 84 हजार स्तूपों और स्तंभों का निर्माण कराया. जिन पर आदर्श वाक्य और आदेश लिखे गए थे. अशोक के शिलालेख आज भी प्राप्त होते हैं. उन स्तंभों की बनावट अशोक के काल की वास्तुकला का नायाब नमूना है जिसका जवाब आज के वैज्ञानिकों के पास भी नही है.. सम्राट अशोक ने सारनाथ, इलाहाबाद, वैशाली, दिल्ली और सांची में इन स्तंभों का निर्माण कराया गया है. इन पांच स्तंभों में से सबसे खास है सारनाथ का अशोक स्तंभ... अशोक स्तंभ में चार शेर हैं. जो चारो तरफ देख रहे हैं. इसमें जो एक चक्र है जो इस बात की ओर संकेत करते हैं कि धर्म का पहिया लगातार चल रहे हैं. इसके अशोक के प्रभाव को चारों तरफ स्थापित करने के रुप में देखा जाता है...  अशोक स्तंभों में जानवरों का विशेष महत्व है. खासकर शेर का. बौद्ध धर्म में शेर को बुद्ध का प्रतीक माना जाता है... लगभग 2300 साल पहले सम्राट अशोक की मृत्यु हो गई. लेकिन उनकी विरासत की झलक आज भी आधुनिक भारत के प्रशासनिक प्रतीकों पर दिखाई देती है. हमारे राष्ट्रीय झंडे का चक्र भी सम्राट अशोक की देन है... आधुनिक भारत सम्राट अशोक की देन को कभी भुला नहीं सकता. लेकिन आश्चर्य की बात है कि जहां प्रशासनिक स्तर पर सम्राट अशोक के प्रतीक चिन्हों को अपनाया गया. वहीं, इतिहासकारों ने मुगल साम्राज्य  की शासन व्यवस्था के सामने सम्राट अशोक को बेहद कम स्थान दिया... सम्राट अशोका एक आदर्श सम्राट थे.. विश्व इतिहास में भी अशोक एक महान और अतुलनीय चरित्र है, उस जैसा ऐतिहासिक पात्र दुर्लभ है.. तभी तो संसार के इतिहास में केवल 3 राजाओं को ही उनके नाम के साथ महान कहकर संबोधित किया जाता है पहला अलेक्जेंडर दूसरा अकबर और तीसरा महान सम्राट अशोक.. तभी तो एक विजेता, दार्शनिक एवं प्रजापालक शासक के रूप में सम्राट अशोक का नाम आज भी अमर है..

बजट चीज क्या है? जान लीजिए

 

1 फरवरी को संसद में आम बजट पेश किया जाएगा... बजट को लेकर काउंटडाउन भी शुरू हो गया है... आमतौर पर आपने सुना होगा कि आम बजट पेश होगा लेकिन हकीकत में इसे यूनियन बजट कहा जाता है। लेकिन ये यूनियन बजट होता क्या है। ये कब से चलन में है। और क्यों इसे फरवरी के महीने में ही पेश किया जाता है। ऐसी कई बातें हैं जिसे जानना आपके लिए बेहद जरूरी है। इस वीडियो को अंत तक देखिएगा क्योंकि आम बजट को लेकर इतने आसान भाषा में बजट का डेफिनेशन आपने अब तक कही नहीं सुना होगा। संविधान में बजट शब्द का जिक्र नहीं है जिसे बोलचाल की भाषा में आम बजट कहा जाता है उसे संविधान के आर्टिकल 112 में एनुअल फाइनेंशियल स्टेटमेंट कहा गया है.. आम बजट में सरकार की आर्थिक नीति की दिशा दिखाई देती है.. इसमें मंत्रालयों को उनके खर्चो के लिए पैसे का आवंटन होता है.. मोटे तौर पर इसमें आने वाले साल के लिए वित्तीय लेखा-जोखा का ब्योरा पेश किया जाता है.. आम बोल चाल की भाषा में अगर कहे तो बजट का मतलब देश की आय-व्यय का हिसाब-किताब... आम बजट या फिर यूनियन बजट का मतलब ठीक उसी तरह से है जैसे आप अपने घर का बजट बनाते हैं कि कितने पैसे कमाएंगे, कितने खर्च करेंगे और अंत में कितने पैसे बचाएंगे। लेकिन आम आदमी और सरकार के बजट में एक मामूली सा अंतर होता है। वह अंतर ये है कि आप अपने घर का बजट बनाते हैं और सरकार पूरे देश का। केंद्रीय बजट सरकार के खर्चों की एक विस्तृत रिपोर्ट होती है. इसे सरकार की सालाना फाइनेंशियल रिपोर्ट भी कह सकते हैं जिसमें वो अपनी आमदनी और खर्चों का हिसाब-किताब देती है और आगे की योजनाएं बताती है... अब आइए बजट से जुड़े कुछ टर्म्स और प्रक्रियाओं का मतलब समझाने की कोशिश करते हैं। हर साल आम बजट के साथ बजट एस्टिमेट पेश होता है. जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है, इसमें सरकार आने वाले वित्तीय वर्ष में कितने खर्च और कमाई का अनुमान है, ये बताती है. सरकार बताती है कि उसे उस वित्तीय वर्ष में इंडिविजुअल इनकम टैक्स, कॉरपोरेट इनकम टैक्स, कस्टम ड्यूटी और GST रेवेन्यू, डिविडेन्स, पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग से आने वाले प्रॉफिट और डाइवेस्टमेंट जैसे दूसरे स्रोतों से कितनी कमाई मिलने की उम्मीद है. बजट एस्टिमेट में सरकार अपनी कमाई के साथ-साथ अपने खर्चों का अनुमान भी जारी करती है. इसके तहत बताया जाता है कि उस वित्तीय वर्ष में उसके अलग अलग मंत्रालयों और विभागों में किन-किन योजनाओं पर कितने पैसे खर्च होने का अनुमान है... अब बात करते हैं बजट पेश करने से पहले किन किन प्रक्रियाओं से गुजरना होता है.. सबसे पहले जनवरी की शुरूआत में बैंक एसोस‍िएशंस, उद्योग समूहों के प्रत‍िन‍िध‍ियों और जाने-माने अर्थशास्‍त्र‍ियों से व‍ित्‍त मंत्री की मीट‍िंग होती है। व‍ित्‍त मंत्री सबकी सलाह सुनते हैं, हालांक‍ि उस सलाह को बजट में शाम‍िल करने या न करने का अंत‍िम फैसला उनका ही होता है। बजट पेश होने से पहले अंतिम सप्‍ताह में व‍ित्‍त मंत्रालय के बेसमेंट में मौजूद प्रेस में बजट दस्‍तावेजों की प्र‍िंट‍िंग होती है। बजट पेश होने के एक सप्‍ताह पहले तक 100 कर्मचार‍ियों को ब‍िल्‍कुल अलग रखा जाता है, ताक‍ि कोई गोपनीय सूचना लीक न हो। बजट भाषण के दो द‍िन पहले प्रेस इंफार्मेशन ब्‍यूरो के अध‍िकारी काम में लग जाते हैं। लगभग 20 अफसरों पर ह‍िंदी, अंग्रेजी और उर्दू में प्रेस र‍िलीज बनाने की ज‍िम्‍मेदारी होती है। बजट भाषण शुरू होने से पहले उन्‍हें बाहर नहीं न‍िकलने द‍िया जाता। फिर व‍ित्‍त मंत्री संसद में बजट पेश करने से पहले भारत के राष्‍ट्रपत‍ि और केंद्रीय मंत्र‍िमंडल के समक्ष बजट का संक्षेप पेश करते हैं। कैब‍िनेट को बजट भाषण से कुछ देर पहले संक्ष‍िप्‍त ब्‍योरा द‍िया जाता है। इसके बाद बजट को संसद में रखा जाता है. सामान्‍यत: बजट द‍िन के 11 बजे संसद में रखा जाता है। भारत में इसका इतिहास देखा जाए तो यह 180 साल पुराना है। 7 अप्रैल 1860 को देश का पहला बजट ब्रिटिश सरकार के वित्त मंत्री जेम्स विल्सन ने पेश किया था। हर साल की तरह इस बार भी 1 फरवरी 2022 को संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देश का आम बजट पेश करेंगी। लेकिन कुछ साल पहले तक फरवरी के पहले दिन नहीं, बल्कि आखिरी दिन बजट पेश किया जाता था। यानी 28 फरवरी या 29 फरवरी को। यह परंपरा सर बेसिल ब्लैकैट ने 1924 में शुरू की थी, जो वर्ष 1999 तक जारी रही... तो आशा करते हैं दोस्तों इस वीडियो को देखकर बजट के दौरान उपयोग किये जाने वाले भारी भरकम शब्द जैसे राजकोषीय घाटा, विनिवेश, कैपिटल गेन्स टैक्स, पुनर्पूंजीकरण से रू-ब-रू जरूर हो गये होंगे.. ऐसे में आपके लिए अब जरूरी होता है कि इस वीडियो को ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच शेयर कीजिए ताकी हर कोई खुद से आम बजट को समझना सीखें

देश में नए नोट कब और किस आधार पर छापे जाते है?

 

जब आपके पास पैसे नहीं होते हैं या पैसे की जरूरत होती है तो आपका भी मन करता होगा कि एक पैसे छापने वाली मशीन आ जाए तो सारी परेशानी खत्म हो जाए… पर में यहां आपको पहले बतादूं की ऐसा तो वो लोग भी नहीं कर सकते, जिनके पास नोट छापने की मशीन है... यानी खुद रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया या फिर भारत सरकार भी ऐसा नहीं कर सकते... उन्हें भी कई नियमों को ध्यान में रखते हुए नोट की छपाई करनी होती है... लेकिन इन चर्चाओं से दूर अगर नोटों की छपाई की बात करें तो अक्सर लोग पूछते हैं कि क्या सरकार अपनी मन मर्जी के मुताबिक नोट छाप सकती है. यहीं सवाल गूगल पर भी काफी ढूढ़ा जाता है. इसी सवाल का जवाब आज हम अपने इस वीडियो में दे रहे हैं... तो दोस्तो आज का ये वीडियो इनफॉर्मेटिक्स के साथ साथ रोमांचकारी भी होने वाला है.. तो चलिए बिना देर किये जानते हैं कि आखिर नोट किस आधार पर छापे जाते हैं और कब यह पता चलता है कि अब नोट छापने की जरूरत है. साथ ही जानते हैं नोट छपने से जुड़ी खास बातें, जो बहुत कम लोग जानते होंगे…

ऐसा नहीं है कि जब भी जरूरत पड़े नए नोट छाप लो... भले ही सरकार के पास नोट छापने का अधिकार होता है.... ऐसा करने से अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाएगी. इससे वहां की करेंसी की कीमत काफी ज्यादा कम हो जाती है और महंगाई दर भी काफी बढ़ जाती है... इसलिए पहले आरबीआई कई मानकों को ध्यान में रखते हुए यह पता करता है कि कितने नोट छापने की जरूरत है और फिर इसके लिए सरकार से स्वीकृति ली जाती है... सरकार भी आदेश देने से पहले आरबीआई से इजाजत लेती है और फिर उसके आधार पर अंतिम फैसला लिया जाता है. वैसे आखिरी फैसला सरकार का ही होता है... सरकार और आरबीआई जीडीपी, विकास दर, राजकोषीय घाटा के आधार पर तय करती हैं कि आखिर कितनी बढ़ोतरी होनी चाहिए. रिजर्व बैंक साल 1956 से करेंसी नोट छापने के लिए ‘मिनिमम रिजर्व सिस्टम’ के तहत करेंसी की छपाई करता है. इस नियम के मुताबिक, करेंसी नोट प्रिंटिंग के विरुद्ध न्यूनतम 200 करोड़ रुपये का रिजर्व हमेशा रखना जरूरी है. इसके बाद ही रिजर्व बैंक करेंसी नोट प्रिंट कर सकता है. भारत में नोटों की छपाई चार प्रेस में होती है... महाराष्ट्र के नासिक और मध्य प्रदेश के देवास प्रेस में नोट छापे जाते हैं... सुरक्षा प्रिंटिंग और मिंटिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड की देखरेख में यहां नोट छपाई का काम किया जाता है. इनके अलावा दो अन्य प्रेस कर्नाटक के मैसूर में और पश्चिम बंगाल के सल्बोनी में स्थित हैं. RBI नोट मुद्रण प्राइवेट लिमिटेड के स्वामित्व में यहां नोट छपाई का काम होता है. इसके अलावा मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद और नोएडा में सिक्के ढालने का काम किया जाता है… मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में सरकार द्वारा संचालित एक सुरक्षा पेपर मिल है. यहीं से भारत की सभी 4 प्रेसों के लिए नोट बनने में इस्तेमाल होने वाले विशेष मुद्रा कागज की आपूर्ति की जाती है. इसके अलावा काफी मात्रा में इन कागजों का दूसरे देश से आयात भी किया जाता है. नोट छापने के लिए ऑफसेट स्याही का निर्माण मध्य प्रदेश के देवास स्थित बैंकनोट प्रेस में होता है. जबकि नोट पर जो उभरी हुई छपाई नजर आती है, उसकी स्याही सिक्किम में स्थित स्विस फर्म की यूनिट सिक्पा  में बनाई जाती है... और आखिर आप ये भी जान लीजिए की रिजर्व बैंक कब से अस्तित्व आया और कब से नोट छापने की अपनी दायित्व निभा रहा है.. दरअसल भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना 1 अप्रैल, 1935 को हुई थी. मतलब आजादी से पहले देश में रिजर्व बैंक की नींव पड़ चुकी थी. अपनी स्थापना के तीन साल बाद साल 1938 की जनवरी में आरबीआई ने पहली बार 5 रुपये का करेंसी नोट जारी किया था. इस नोट पर ‘किंग जॉर्ज VI’ की तस्वीर प्रिंट हुई थी. मतलब आजादी से 9 साल पहले रिजर्व बैंक ने अपनी पहली करेंसी जारी की थी. इसके बाद 10 रुपये के नोट, मार्च में 100 रुपये के नोट और जून में 1,000 रुपये और 10,000 रुपये के करेंसी नोट जारी किए थे


फरवरी महीने का इतिहास जानिए क्यों होते हैं फरवरी माह में 28 दिन

 

आज से फरवरी महीने की शुरुआत हो गई है... और जैसा कि आप सब लोग जानतें हैं कि फरवरी साल का सबसे छोटा महीना होता है... जिसमें 30 और 31 दिन नहीं बल्कि सिर्फ 28 या 29 ही होते हैं...  मगर कभी आपने सोचा है कि आखिर फरवरी के साथ ही ऐसा क्यों होता है... तो आइए इस वीडियो में जानते हैं कि उस वजह के बारे में, जिससे फरवरी का महीना छोटा होता है और साल के दूसरे 11 महीनों पर कोई असर नहीं पड़ता है.... हर साल में 12 महीने होते हैं और हर महीने के दिन तय हैं, जिसमें किसी महीने में 30 तो किसी महीने में 31 दिन आते हैं. लेकिन, फरवरी की कहानी कुछ और ही है... दरअसल साल के 12 महीनो में से सिर्फ फरवरी ही मात्र एक ऐसा महीना है जिसमें 28 या 29 दिन होते हैं। इस बात को जानने के लिए हमें इसकी गहराईयों में जाने की जरुरत है कि आखिर क्यों फरवरी में 30 और 31 दिन की बजाए 28 और 29 दिन होते है... दरअसल, हमारी पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाने में 365 दिन और 6 घंटे लगाती है. और इसलिए ही हर 4 साल में फरवरी के महीने में एक दिन अधिक जोड़कर इसका संतुलन बनाया जाता है जिसे लीप ईयर कहा जाता है. यह पृथ्वी के सूर्य के चक्कर लगाने पर निर्भर करता है और बाकी महीनों में 30 या 31 दिन होने के बाद फरवरी में एडजस्ट करने के लिए सिर्फ 28 दिन और कुछ घंटे ही बचते हैं तो इस महीने में ऐसे ही एडजस्ट कर दिया गया. इस वजह से फरवरी में 28 दिन होते हैं और चार साल बाद 29 दिन हो जाते हैं... अब सवाल ये है कि आखिर फरवरी में ही ये दिन एडजस्ट क्यों होते हैं और यह मार्च, जनवरी या दिसंबर में क्यों एडजस्ट नहीं होते हैं... इसके पीछे का लॉजिक है कि आजकल हम जिस कैलेंडर का इस्तेमाल करते हैं वह रोमन कैलेंडर पर आधारित है। पहले के कैलेंडर में महीनों की शुरुआत मार्च से होती थी। उस समय एक साल में 304 दिन होते थे और एक साल में सिर्फ 10 महीने ही होते थे.. वहीं, अभी की तरह साल का आखिरी महीना दिसंबर ही था और दिसंबर के बाद मार्च आता था. हालांकि, बाद में जनवरी और फरवरी महीने जोड़े गए. साल 153 BC में जनवरी की शुरुआत हुई थी, लेकिन इससे पहले 1 मार्च साल का पहला दिन होता था... इतना ही पहले जब 10 महीनों का साल होता था तो महीने के दिन ऊपर-नीचे होते रहते थे. फिर जब साल में दो महीने जोड़े गए तो दिन को भी उसी हिसाब से विभाजित किया गया. इसके बाद फरवरी में 28 दिन हो गए और 4 साल के हिसाब से 29 दिन आने लगे. तब ये है ही कैलेंडर चलता आ रहा है, जबकि पहले यह कैलेंडर कई बार बदल चुका था... ऐसा भी कहा जाता है कि अगर फरवरी के महीने में एक दिन नहीं बढ़ता तो हम हर साल कैलेंडर से लगभग 6 घंटे आगे निकल जाएंगे. मतलब 100 साल में 24 दिन आगे निकल जाएंगे... तो दोस्तों आज के इस वीडियो में हमने जाना की फरवरी में 28 दिन क्यों होते हैं.. और ये फ़रवरी में 29 वा दिन कब आता है और लिप वर्ष किसे कहा जाता है इस सब के बारे में हमने आपको पबरी जानकरी देने की कोशिश की है.... ये जानकरी आपको कैसे लगी नीचे कमेंट बॉक्स में अपनी राय जरूर दे और अपने दोस्तों के साथ इस वीडियो को जरूर शेयर कीजिएगा

जानिए क्या होता है राष्ट्रीय शोक और इस दौरान क्या कुछ बदल जाता है?

 लता मंगेशकर के निधन पर देशभर में शोक की लहर है. स्वर कोकिला लता जी के निधन के बाद कला, साहित्य, सिनेमा, खेल… हर क्षेत्र के लोग उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं. उन्हें साल 2001 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया था... इसलिए सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर के निधन पर सरकार ने दो दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की है.. लेकिन क्या आप जानते हैं कि किसी के निधन पर कैसे राष्ट्रीय शोक की घोषणा की जाती है? क्या ऐसे में सरकारी संस्थानों में छुट्टी रहती है? राजकीय शोक के दौरान कितना कुछ बदल जाता है? आइए जानते हैं इस वीडियो में कि कैसे होती है राष्ट्रीय शोक की घोषणा और घोषणा के बाद क्या कुछ बदल जाता है.. सबसे पहले जानते हैं कि आखिर कौन कर सकता है इसकी राजकीय शोक की घोषणा.. दरअसल राष्ट्रीय या राजकीय शोक की घोषणा पहले केवल केंद्र से होती थी... केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति ही करते थे..  लेकिन बदले नियमों के मुताबिक राज्यों को भी यह अधिकार दिया जा चुका है. अब राज्य खुद तय कर सकते हैं कि किसे राजकीय सम्मान देना है. केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग राजकीय शोक घोषित करते हैं... हलांकि राष्ट्रीय शोक घोषित करने का नियम पहले सीमित लोगों के लिए था... पहले देश में केवल राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री रह चुके लोगों के निधन पर राजकीय या राष्ट्रीय शोक की घोषणा की जाती थी... आपको बतादें कि आजादी के बाद स्वतंत्र भारत में पहला राष्ट्रीय शोक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद घोषित किया गया था... राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के निधन के बाद जो नियम थे, उसके अनुसार पद पर रहते हुए प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति का निधन हो जाने पर या फिर पूर्व में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति रह चुके व्यक्ति का निधन होने पर देश में राष्ट्रीय शोक की घोषणा की जाती थी... समय के साथ राष्ट्रीय शोक के नियम में बदलाव किए गए. बदले गए नियमों के मुताबिक, गणमान्य व्यक्तियों के मामले में भी केंद्र को यह अधिकार दिया गया कि विशेष निर्देश जारी कर सरकार राष्ट्रीय शोक का ऐलान कर सकती है... इतना ही नहीं, देश में किसी बड़ी आपदा के वक्त भी ‘राष्ट्रीय शोक’ घोषित किया जा सकता है... राष्ट्रीय शोक का एक महत्वपूर्ण पहलू राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार भी है. लेकिन यह जरूरी नहीं कि राजकीय सम्मान से अंत्येष्टि होने पर हर बार राष्ट्रीय या राजकीय शोक घोषित किया जाए... यानी कि राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार और राष्ट्रीय शोक अलग-अलग परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं... फ्लैग कोड ऑफ इंडिया के मुताबिक, राष्ट्रीय शोक के दौरान सचिवालय, विधानसभा समेत सभी महत्वपूर्ण सरकारी कार्यालयों में लगे राष्ट्रीय ध्वज आधे झुके रहते हैं. वहीं, देश के बाहर भारतीय दूतावासों और उच्‍चायोगों में भी राष्‍ट्रीय ध्‍वज को भी आधा झुकाया जाता है. इसके अलावा किसी तरह के औपचारिक और सरकारी कार्यक्रम का आयोजन नहीं किया जाता. राजकीय शोक की अवधि के दौरान समारोहों और आधिकारिक मनोरंजन की भी मनाही रहती है.. केंद्र सरकार के 1997 में जारी नोटिफिकेशन के अनुसार राजकीय शवयात्रा के दौरान कोई सार्वजनिक छुट्टी अनिवार्य नहीं है. इसका प्रावधान खत्म कर दिया गया है. हां, लेकिन राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए किसी व्यक्त‍ि का निधन हो जाए, तो छुट्टी होती है

रहें ना रहें हम महका करेंगे

 

सीधा-सादा लिवास.... सिंपल-सी साड़ी... बालों की दो चोटी...  माथे पर बड़ी सी बिंदी और जुबां खुलते ही मंत्रमुग्ध कर देने वाली आवाज... जी हां आप समझ ही गये होंगे कि बात लता मंगेशकर की हो रही है. आज वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कृति हमेशा साथ होंगी... देश में शायद ही ऐसा कोई संगीत प्रेमी होगा, जिसने लता मंगेशकर का गाना नहीं सुना होगा.. भारत रत्‍न लता मंगेशकर की आवाज उनकी बचपन से लेकर बुजुर्ग होने तक उतनी ही मीठी रही... वह हमेशा देश की बहुमूल्य हस्तियों में गिनी जाती रही हैं... मीठी आवाज के साथ ही अपने कोमल और दयालु हृदय के लिए जानी जाने वालीं लता दीदी का जीवन बेहद कामयाब रहा.. लता मंगेशकर का जन्म 28 सितंबर, 1929 में एक मिडिल क्लास मराठी परिवार में हुआ. मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में जन्मीं लता पंडित दीनानाथ मंगेशकर की बड़ी बेटी थीं. पिता रंगमंच के कलाकार और गायक थे, सो लता को गायकी विरासत में मिली. पहली बार स्टेज पर गाने के लिए उन्हें जो 25 रुपये मिले थे, उसे ही वह अपनी पहली कमाई बताती रहीं. हालांकि उन्होंने पहली बार 1942 में मराठी फिल्म ‘किती हसाल’ के लिए गाना गाया था... लता के भाई हृदयनाथ मंगेशकर और बहनें उषा मंगेशकर, मीना मंगेशकर और आशा भोंसले सभी ने अपने करियर के रूप में संगीत को ही चुना. 1942 में पिता के देहांत के बाद जब परिवार की आर्थिक स्थिति चरमरा गई तब लता मंगेशकर ने मराठी और हिंदी फिल्मों में छोटे-छोटे रोल भी किए. हालांकि उन्हें उनकी गायकी ने ही दुनियाभर में पहचान दिलाई... लता दीदी के जीवन के कई ऐसे पहलू हैं जिनके बारे में शायद आपको न पता हो.. चलिए जानते हैं लता दीदी की जीवन गाथा की कुछ रोचक और अनसुनी कहानी

स्कूल में अपने पहले दिन ही लता मंगेशकर ने अन्य बच्चों को संगीत की शिक्षा देना शुरू कर दिया था और जब शिक्षक ने उसे रोक दिया था तो ये बात लता को इतनी बुरी लगी थी कि उन्होंने स्कूल जाना बंद कर दिया था. हालांकि, कुछ लोगों का दावा रहा है कि चूंकि वह अपनी छोटी बहन आशा के साथ स्कूल जाती थीं, इस पर स्कूल ने आपत्ति जताई थी, इसलिए उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया था.

लता मंगेशकर जब 13 साल की थीं, तभी पिता दीनानाथ मंगेशकर की हार्ट अटैक से मौत हो गई थी. इसके बाद लता दीदी पर परिवार को चलाने का बोझ आ गया जिसके बाद 1940 के दशक में संगीत की दुनिया में खुद को स्थापित करने के लिए कठोर संघर्ष किया... उन्होंने पहला गीत 1942 में मराठी फिल्म 'किती हसाल' में गाया था लेकिन ये फिल्म रिलीज नहीं हो सकी थी.

पिता के मृत्यु के बाद लता दीदी को हमेशा एक सपना आया करता था.. सपने में वो अक्सर देखती थी कि वो एक मंदिर के बाहर खड़ी है और वो उस मंदिर में जाने की कोशिश करती है। बहुत मुश्किल के बाद वो मंदिर में प्रवेश तो कर जाती है लेकिन मंदिर से बाहर निकलने के लिए उन्हें खुब जद्दोजहद करनी पड़ती है। इसी दौरान उन्हें एक बाहर निकलने का दरवाजा दिखाई पड़ता है.. दरवाजा देखकर वो भाग कर वहां पहुंच तो जाती है लेकिन दरवाजे के बाहर उन्हें दूर-दूर तक सिर्फ और सिर्फ पानी दिखाई पड़ता है.. जिसे देखकर वो घबरा जाती और नींद से जगकर बैठ जाती थी और फिर वो सपने वाली बात बगल में सो रही अपनी दादी से बताती। फिर दादी कहती ऐसे सपने देखकर डरा नहीं करते। ऐसे सपने शुभ माने जाते हैं. और यही सपना एक दिन तेरा नाम रौशन कराएगा।

जब लता मंगेशकर की उम्र 33 साल थी, तभी 1962 की शुरुआत में वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गई थीं. तब डॉक्टरों ने बताया था कि उन्हें खाने में धीमा जहर दिया गया था. वह तीन दिन तक अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच जूझती रही थीं.

लता मंगेशकर संगीत निर्देशक गुलाम हैदर को अपना गॉडफादर मानती थीं क्योंकि बतौर लता गुलाम हैदर ने ही सबसे पहले उनकी प्रतिभा में पूरा विश्वास जताया था.

जिस रेडियो की बदौलत लता मंगेशकर ने देश और दुनिया में अपने लाखों चाहने वालों के दिलों में जगह बनाई उसी रेडियो से लता मंगेशकर अपनी सारी उम्र नफ़रत करती रहीं। और उसके पीछे एक दिलचस्प और चौंकानें वाला वाकया है.. दरअसल जब वह 18 साल की थी तब उन्होने अपना पहला रेडियो खरीदा और जैसे ही रेडियो ऑन किया तो के.एल.सहगल की मृत्यु का समाचार उन्हें प्राप्त हुआ.. के एल सहगल की मौत की ख़बर सुनते ही लता मंगेशकर इस कदर गुस्से से बौखला उठीं कि उन्होंने उठाकर रेडियो को घर के बाहर फेंक दिया।

बॉलीवुड के शो मैन राजकपूर ने लता मंगेशकर की ही जिंदगी पर फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम बनाई थी. इस फिल्म में लता मंगेशकर ने अभिनय करने का वादा किया था लेकिन बाद में उन्होंने मना कर दिया था. बाद में ज़ीनत अमान ने उनके कैरेक्टर रूपा का रोल निभाया था.

राज्य सभा के सदस्य के तौर पर नामित होने के बाद वे खराब स्वास्थ्य के चलते कभी भी सदन में नहीं जा सकीं और उन्होंने बतौर मेंबर ऑफ पार्लियामेंट एक भी रुपये सैलरी के तौर पर नहीं लिए.

जीवन भर अविवाहित रहीं लता मंगेशकर का नाम रजवाड़े राज सिंह डूंगापुर से जुड़ता रहा, हालांकि उन्होंने कभी भी इस बात को नहीं स्वीकार किया.

लता मंगेशकर को जासूसी उपन्यासों और मिठाइयों का शौक था. वे जलेबी, गुलाबजामुन और सूजी का हलवा पसंद था. इसके अलावा गोलगप्पे और नींबू का अचार भी उनकी पसंदीदा चीज़ों में शुमार था.

बिल और मिलिंडा गेट्स की प्रेम कहानी

 

हेलो दोस्तो आज वैलेंटाइन डे है और आज हम बात करने जा रहे हैं एक ऐसी खूबसूरत लवस्टोरी की जिसकी दी एंड तो हो गई लेकिन उस प्रेम कहानी की स्टोरी अभी खत्म नहीं हुई है और ना ही उन दोनों को बीच का लव... यानी की मुहब्बत... जी हां आप शायद अब तक समझ गये होंगे कि आखिर हम बात किस प्रेम कहानी की कर रहे हैं.. कहानी ठीक आज से 35 साल पहले यानी की साल 1987 से शुरू होती है... इस प्रेम कहानी को जानने के लिये आईये कुछ फ्लैशबैक में चलते हैं। बात 1975 की है जब ज्‍यादातर अमरीकी लोग टाइपराइटर का इस्‍तेमाल किया करते थे,.. उन्ही दिनों अमेरिका का एक युवक ने अपने दोस्‍त पॉल एलन के साथ मिलकर एक कंपनी शुरू की, जो कंप्‍यूटर सॉफ्टवेअर बनाने का काम करती थी... युवक की उम्र उस वक्‍त 20 साल थी. एक छोटे से गैराज से शुरू हुई मामूली सी कंपनी 12 साल बाद 1987 तक आते-आते इतनी बड़ी हो चुकी थी कि यूनिवर्सिटी-कॉलेजों से कंप्‍यूटर और सॉफ्टवेअर की नई-नई पढ़ाई करके निकल रहे युवाओं को अपने यहां नौकरियां दे रही थी... ऐसे ही कॉलेज से पढ़कर निकली एक 23 साल की लड़की ने 1987 में माइक्रोसॉफ्ट जॉइन किया... उस लड़की का नाम था मिलिंडा फ्रेंच. मिलिंडा जवान थी.. खूबसूरत थी.. उम्‍मीदों और सपनों से भरी थी... वहीं दूसरी तरफ मिलिंडा से उम्र में 9 साल बड़े 32 साल के बिल गेट्स के पास जिंदगी में कंप्‍यूटर और सॉफ्ट वेअर के अलावा और कुछ नहीं था... सोने और जिंदगी के बाकी बुनियादी जरूरी काम करने के अलावा बिल का सारा समय सिर्फ कंप्‍यूटरों के साथ बीतता था. उस समय में प्‍यार और डेटिंग जैसी चीजों के लिए कोई जगह नहीं थी. जबकि मिलिंडा की जिंदगी प्‍यार से लबालब थी... बिल की कंपनी में मिलिंडा काम तो करती थी लेकिन दोनों की मुलाकात इससे पहले कभी नहीं हुई थी.. एक दिन एक ट्रेड फेयर के दौरान डिनर टेबल पर दोनों आमने-सामने थे. दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्‍कुराए. पूरी शाम बातें करते रहे. बिल को मिलिंडा और मिलिंडा को बिल अच्‍छे लगे. मिलिंडा सोच भी नहीं सकती थी कि जिस कंपनी में वो काम करती हैं, उसी के बॉस को डेट करेंगी. लेकिन मिलिंडा पर बिल का दिल आ गया था. कठोर, गणित के सवालों और कंप्‍यूटर की तर्ज पर काम करने वाले बिल का दिमाग अब थोड़ा प्‍यार-मुहब्‍बत के इलाकों में भी ताकाझांकी करने लगा था... बिल और मिलिंडा को डेट करते एक साल हो चुका था. वो अकसर बाहर खाने पर मिलते, एक-दूसरे के घर जाते और फोन पर लंबी-लंबी बातें किया करते थे. आश्‍चर्य नहीं कि दोनों की बातचीत का एक बड़ा हिस्‍सा भी कंप्‍यूटरों और सॉफ्टवेअरों के बारे में ही होता था... लेकिन इस रिश्‍ते का एक पहलू ये भी था कि शुरू-शुरू में ये रिश्‍ता दोनों के लिए ही पहली प्रिऑरिटी नहीं था. दोनों डेट तो कर रहे थे, लेकिन पैरलली उनकी दो अलग-अलग दुनिया भी थी. बिल कहते हैं, “मिलिंडा के और भी बॉयफ्रेंड थे और मेरे पास माइक्रोसॉफ्ट था... एक साल तक डेट करने के बाद बिल को लगने लगा था कि अब रिश्‍ते का कोई स्‍थाई ठिकाना होना चाहिए.. उधर मिलिंडा भी एक कामकाजी, औऱ आत्‍मनिर्भर महिला थीं.. बिल को ये बात पसंद भी थी.. फिर जब दोनो लोग एक दूसरे को पसंद कर रहे थे तो फिर क्या था आखिर वो दिन आ ही गया.. 1 जनवरी 1994 को बिल और मिलिंडा ने एक छोटे से आइलैंड पर जाकर शादी कर ली. जाहिर है बिल गेट्स की लिस्‍ट में मिलिंडा के साथ शादी की अच्‍छाइयों की फेहरिस्‍त बुराइयों से ज्‍यादा बड़ी थी. वो जीत गई. दोनों ने बाकी जिंदगी साथ बिताने का फैसला कर लिया. आज उनके तीन बच्‍चे हैं. पहले तो कुछ समय तक मिलिंडा ने सारा समय शादी और परिवार को ही समर्पित कर रखा था. फिर बच्‍चों के बड़े होने के बाद वो काम पा लौट आईं और दोनों ने मिलकर बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की शुरुआत की... दोनों ने 27 साल बहुत खुशहाल जिंदगी गुजारी, लेकिन 27 साल की शादी और 34 साल की कोर्टशिप के बाद पिछले साल अगस्‍त, 2021 को दोनों अलग हो गए. पूरी दुनिया के मीडिया में दोनों की शादी इतनी सुर्खियों में नहीं रही थी, जितना ही दोनों का तलाक रहा क्‍योंकि 27 साल बाद दोनों दुनिया के सबसे अमीर और ताकतवर व्‍यक्तियों में से एक थे... लेकिन जितनी गरिमा, स्‍नेह और जिम्‍मेदारी के साथ दोनों अलग हुए, उसे देखकर लगता है कि उनका साथ इससे कहीं ज्‍यादा स्‍नेह और जिम्‍मेदारी के बोध से भरा हुआ था... आज किसी को भी नही लगता कि जिसका तलाक हो गया हो, उसकी प्रेम कहानी भी इतनी कीमती हो सकती है बिल और मिलिंडा आज पति-पत्‍नी की तरह साथ नहीं हैं, लेकिन एक दोस्‍त, सहयोगी और अपने बच्‍चों के माता-पिता की तरह वो आज भी साथ हैं और हमेशा रहेंगे.

चलते चलते अलविदा कह गये बप्पी लहिरी

 चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना... कभी अलविदा ना कहना.. रोते हंसते बस यूं ही तुम गुनगुनाते रहना, कभी अलविदा ना कहना... जी हां आप समझ ही गये होंगे हम बात बप्पी दा की कर रहें हैं... बप्पी लहिरी एक ऐसा नाम जिससे हिंदुस्तान का हर वो शख्स वाकिफ होगा जिसने कभी मुहब्बत की होगी... दिल से निकली आह को कई लोगों ने उनकी संगीत में महसूस किया होगा, तो कभी मस्ती भरे मूड में कई दीवाने उनके नगमों पर झूम उठे होंगे.. बप्पी लहिरी भले ही वो आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन हम यही कहेंगे बप्पी दा कभी अलविदा ना कहना... हिन्दुस्तानी संगीत में अगर डिस्को गाने की बात आती हैं तो सबसे पहले बप्पी लहरी का नाम याद आता हैं.. बप्पी लहिरी ने अपने समय में इतने सुपरहिट डिस्को सांग दिए जो आज भी लोगो के जुबान पर थिरकते हैं.. 80 और 90 के दशक में भारत में डिस्को संगीत के लोकप्रिय धुन ज़िन्दगी मेरा गाना... मैं किसी का दीवाना...गाने से सबको झूमने और नचाने वाले बप्पी लहिरी का मंगलवार को मुंबई के क्रिटिकेयर अस्पताल में निधन हो गया.. वे 69 वर्ष के थे। डॉक्टरों के मुताबिक लाहिरी को कोरोना की वजह से एक महीने के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया था और सोमवार को उन्हें छुट्टी दे दी गई थी। लेकिन मंगलवार को उनकी तबीयत बिगड़ गई फिर उन्हें  अस्पताल लाया गया जहां उनका निधन हो गया.. दुनिया भर में डिस्को किंग के तौर पर मुकाम हांसिल करने वाले बप्पी लहिरी का जन्म 1952 में पश्चिम बंगाल के कलकत्ता में हुआ था.. बप्पी दा का असली नाम आलोकेश लाह‍िरी था... उनके पिता, अपरेश लाहिरी एक प्रसिद्ध बंगाली गायक थे और उनकी मां, बंसारी लाहिरी एक संगीतकार के साथ साथ गायिका भी थीं... बप्पी लहरी का संगीत के प्रति रुझान बचपन से ही था जब इनकी उम्र 3 साल की थी तब से ही वो तबला बजाने लगे थे और जब वो चार साल के हुए तब उन्होने लता जी के साथ एक गाने में तबला बजाया और वही से इनका सफ़र शुरू हो गया संगीत की दुनिया में... उन्होंने 19 साल की छोटी उम्र में एक संगीत निर्देशक के रूप में अपना करियर शुरू किया.. बप्पी दादा सिर्फ बॉलीवुड की दुनिया में ही नहीं हॉलीवुड की दुनिया में भी प्रसिद्ध हैं.. उन्हें साल 1972 में बंगाली फिल्म, दादू में गाना गाने का पहला अवसर मिला था। हालांकि हिंदी फिल्मों में उन्होंने अपनी जगह साल 1973 में फिल्म नन्हा शिकारी से बनाना शुरू किया। ताहिर हुसैन की हिंदी फिल्म, ज़ख्मी से उन्हें बॉलीवुड में खुदको स्थापित किया और एक पार्श्व गायक के रूप में पहचान बनाई.. उन्होंने 70-80 के दशक में बॉलीवुड को एक से बढ़कर एक आइकॉन‍िक गाने दिए हैं. मिथुन चक्रवर्ती का गाना आई एम ए डिस्को डांसर आज भी लोगों को जुबानी याद है. वो बप्पी दा ही थे जिनकी आवाज ने इस गाने को घर-घर पॉपुलर किया था. बप्पी लहरी ने जिन गानों का कंपोज किया, उनमें डिस्को डांसर, हिम्मतवाला, शराबी, एडवेंचर ऑफ टार्ज़न, डांस-डांस, सत्यमेव जयते, कमांडो, आज के शंहंशाह, थानेदार, नंबरी आदमी, शोला और शबनम सबसे अहम हैं. बप्पी लहरी की जिमी-जिमी, आजा-आजा की लोकप्रियता तो आज भी सिर चढ़कर बोलती है... बप्पी दा द्वारा जीते गए अवॉर्ड की बात करें तो 1985 में उन्हें फिल्म शराबी के लिए बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया था. इसके अलावा बप्पी लहिरी को एक बार फिर फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला. उन्हें 2018 में फिल्मफेयर का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार दिया गया था. 2018 में ही बप्पी लहिरी को मिर्ची म्यूजिक अवॉर्ड मिला. यह अवॉर्ड उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट कैटेगरी में मिला था... बप्पी लहरी को लोग आमतौर पर बप्पी दा कहकर बुलाते थे. सोने की जूलरी को लेकर उनका मोह उनके पहनावे से साफ़ झलकता था. उनके पहनावे में चमक और रंग बहुत गहरे होते थे... बप्पी लहरी ने मई 2014 में राजनीति में भी आने की कोशिश की थी. वे 2014 में बीजेपी में शामिल हुए थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने बप्पी लहरी को हुगली ज़िले के श्रीरामपुर लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया था लेकिन वह चुनाव हार गए थे... आज हमारे बीच भले ही बप्पी दा नहीं हैं लेकिन उनकी संगीत और आवाजो अंदाज हममें हमेशा जोश और जज्बात भरते रहेंगे और हम कभी बप्पी दादा को अलविदा ना कहेंगे.