सदाबहार सुपर स्टार
राजकुमार
चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के बने
होते हैं वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते.. वक्त फिल्म का ये डॉयलाग अगर राजकुमार
ने न बोला होता...तो शायद ये डॉयलाग सालों साल तक पत्थर जैसी चोट का अहसास भी नहीं
करा पाता। ये उस आवाजो अंदाज का असर था...जिसके दीवाने आज भी कम नहीं। ये अदायगी
ही राजकुमार की पहचान बनी...जो हर देखने वालों के भीतर भी जोश और जज्बात को लबरेज
कर देती है.... यों पारसी थियेटर से निकल कर सिल्वर स्क्रीन पर छा जाने वाले अकेले
राजकुमार नहीं थे लेकिन राजकुमार ने अपने अभिनय में बार बार इस बात को साबित करने
का प्रयास किया कि सिनेमा वह विधा है जहां नाटकीयता और मनोरंजन को ज्यादा तवज्जो
देने की जरूरत है। इसीलिए सिल्वर स्क्रीन पर भी राजकुमार अपनी डायलाग डिलीवरी को
पारसी थियेटर शैली से कभी अलग नहीं करते.. फिल्मी पर्दे पर राजकुमार की एंट्री उस
वक्त होती है...जब एक तरफ दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद और गुरुदत्त जैसे सितारे जीवन के हर रंग
को मुकम्मल तरीके से जी रहे थे और दर्शक उनकी अदायगी की दीवानी थी...उस बीच
राजकुमार के लिए पहचान कायम करना आसान नहीं था...जबकि राजकुमार को ना तो दिलीप
कुमार की तरह नाचना आता था, ना राजकपूर की
तरह भदेस बनना गंवारा था और ना ही देवानंद की तरह रोमांटिक उनकी छवि थी...इसके
बावजूद दब वो पैगाम में दिलीप कुमार के सामने पर्दे पर दस्तक दी...तो दुनिया इस
जुगलबंदी को देखती रह गई...दिलीप कुमार के सामने अपने अभिनय का लोहा मनवा लेने के
बाद तो राजकुमार को जैसे बेहतरीन एक्टर का सर्टिफिकेट मिल गया... हालांकि इससे
पहले जब महबूब खान ने मदर इंडिया में राजकुमार को भले ही छोटा ही रोल दिया लेकिन
उस रोल ने उन्हें उनके टैलेंट को अंतराष्ट्रीय मंच दे दिया...
मदर इंडिया और पैगाम के
बाद राजकुमार की अभिनय प्रतिभा का मैसेज सबको मिल चुका था।....वक्त गुजरता
गया...और आगे चलकर दुनिया और महफिल राजकुमार के कदमों तले थी...
(गाना ---ये दुनिया ये
महफिल...)रोमांटिक छवि के नायक न होकर भी राजकुमार ने रुमानियत को नई पहचान दी।
काजल फिल्म का ये गीत भला कौन भूल सकता है...(गाना-छू लेने दो नाजुक होंटो को...)और
पाकीजा...का ये डॉयलाग और गीत...सबकी जेहन और रूह को आज भी झकझोर देते हैं.. राजकुमार
का रुमानी सफर जारी रहा...दिल अपना और प्रीत पराई, दिल एक मंदिर, हमराज, मेरे हुजूर जैसे
सफल फिल्में उनके खाते में जुड़ती गईं... और वहीदा रहमान के साथ नीलकमल का वो
प्यासा और तड़पता कलाकार सबका दिल लूटता रहा... लेकिन सन् 80 के बाद राजकुमार ने
अपनी फिल्मी छवि को बदलने की कोशिश शुरू कर दी...जिसके बाद कुदरत, धर्मकांटा, राजतिलक, मकते दम तक जैसी फिल्मों
में चरित्र भूमिकाएं निभाने लगे। लेकिन इसके बाद भी राजकुमार का एक और बड़ा
करिश्मा देखना बाकी था...जिसे लोगों ने सौदागर और तिरंगा में देखा.. पैगाम की वो
जोड़ी एक बार फिर सौदागर में दिखी...तो दुनिया देखती रह गई...दोस्ती और दुश्मनी के
तासीर को जिस शिद्दत से राजकुमार और दिलीपु कुमार ने पर्दे पर जिया...वो एक मिसाल
है.. 3 जुलाई 1996 को दुनिया को अलविदा कहने वाले राजकुमार आज हमारे बीच भले ही
नहीं हैं...लेकिन उनकी अदायगी और आवाजो अंदाज हममें हमेशा जोश और जज्बात भरते
रहेंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें