सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी.. चमक
उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी, वह
तो झांसी वाली रानी थी... झांसी की रानी
लक्ष्मी बाई की शौर्य गाथाएं किसको नहीं पता! लक्ष्मी बाई का जिक्र आते ही हम अपने
बचपन में लौट जाते हैं और सुभद्रा कुमारी चौहान की वह पंक्तियां गुनगुनाने लगते
हैं. जिनमें वह कहती हैं कि खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी. 1835 में वाराणसी जिले
के भदैनी में मोरोपन्त तांबे के घर में एक बची का जन्म लिया. नाम रखा गया
मनिकार्निका. नाम बड़ा था, इसलिए घर वालों ने उसे मनु कहकर बुलाना शुरु कर दिया, जिसे बाद में दुनिया
ने लक्ष्मीबाई के नाम से जाना... मनु बोलना नहीं सीख पाई थी. पर उनके चुलबुलेपन ने उन्हें सबका दुलारा
बना दिया. देखते ही देखते वह कब चार साल की हो गई किसी को पता नहीं चला. फिर अचानक
एक दिन उनके सिर से मां भागीरथीबाई का साया हट गया. मनु की मां भागीरथीबाई हमेशा
के लिए आंखें बंद कर ली थी. अब पिता मोरोपन्त तांबे ही थे, जिन्हे मनु को माता
और पिता दोनों बनकर पालना था.... बिन मां की बेटी का पालन-पोषण आसान नहीं था, पर पिता मोरोपन्त ने
धैर्य नहीं खोया. न ही उन्होंने अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ा.... बल्कि मोरोपन्त
तांबे.. मनु को कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी और एक बेटे की तरह बड़ा किया...
शायद मनु के पिता ने बचपन में ही मनु के हुनर को पहचान लिया था... तभी तो पढ़ाई के
साथ तो उन्होंने मनु को युद्ध कौशल भी सिखाए. मनु धीरे-धीरे घुड़सवारी, तलवारबाजी और
तीरंदाजी में पारंगत होती गईं... देखते ही देखते मनु एक योद्धा की तरह कुशल हो गई.
मनु का ज्यादा से ज्यादा वक्त लड़ाई के मैदान गुजरने लगा. कहते है कि मनु के पिता
संतान के रुप में पहले लड़का चाहते थे, ताकि उनका वंश को आगे बढ सके. लेकिन जब मनु का जन्म हुआ तो उन्होंने
तय कर लिया था कि वह उसे ही बेटे की तरह तैयार करेंगे. मनु ने भी पिता को निराश
नहीं किया और उनके सिखाए हर हुनर को जल्द से जल्द सीखती गईं.... रानी लक्ष्मी बाई के पिता बिठ्ठूर में पेशवा
ऑफिस में काम करते थे और मनु अपने पिता के साथ पेशवा के यहां जाया करती थी। पेशवा
भी मनु को अपनी बेटी जैसी ही मानते थे और उनके बचपन का एक भाग यहां भी बीता। रानी
लक्ष्मीबाई बचपन से ही बहुत तेज तर्रार और ऊर्जा से भरी थी। उनकी इन्ही विशेषताओं
के कारण ही पेशवा उन्हें छबीली कहकर पुकारा करते थे। मनु को देखकर सब उनके पिता से कहते थे मोरोपन्त तुम्हारी बिटियां
बहुत खास है. यह आम लड़कियों की तरह नहीं है... मनु बचपन से ही मानती थीं कि वह
लड़कों के जैसे सारे काम कर सकती हैं.. मनु के बचपन में नाना साहिब उनके दोस्त हुआ
करते थे. वैसे तो दोनों में उम्र का काफी बड़ा फासला था. नाना साहिब लक्ष्मी बाई से
लगभग दस साल बड़े थे. लेकिन उनकी दोस्ती के बीच कभी उम्र का अंतर नहीं आया. नाना
साहिब और लक्ष्मी बाई के साथ एक शख्स और था,
जो अक्सर इन दोनों के साथ रहता था. उस शख्स का
नाम था, तात्या टोपे. बचपन से यह तीनों एक साथ खेल और युद्ध की प्रतियोगिताओं
में एक साथ भाग लेते रहे...
महिला सशक्तिकरण के इस दौर में भला महिलाओं के लिए रानी लक्ष्मीबाई से
अधिक बड़ा प्रेरणास्रोत कौन हो सकता है, जिन्होंने पुरुषों के वर्चस्व वाले दौर में महज 23 साल की उम्र में ही
अपने राज्य की कमान संभालते हुए अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। रानी
लक्ष्मीबाई ने अपने जीते जी अंग्रेजों को झांसी पर कब्जा नहीं करने दिया। मनु महज 13-14 साल की रही होंगी, जब उनकी शादी झांसी
के राजा गंगाधर राव से कर दी गई. इसे उनका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि शादी के कुछ
सालों बाद ही राजा गंगाधर राव चल बसे. एक पुत्र की प्राप्ति भी हुई थी, लेकिन चार महीने की
अल्पआयु में उसकी भी मृत्यु हो गई थी. सारी झांसी शोक सागर में निमग्न हो गई। राजा
गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को चल बसे। महाराजा
का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही
अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेजी सरकार को सूचना दे
दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य
हड़प नीति के तहत अंग्रेजों ने बालक दामोदर राव को झांसी राज्य का उत्तराधिकारी
मानने से इनकार कर दिया और ‘डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स’ नीति
के तहत झाँसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया.. हालांकि
रानी लक्ष्मीबाई ने अंगरेज़ वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा
दायर कर दिया पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कोई फैसला हो ही नहीं सकता था
इसलिए बहुत बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार हुआ। 28 अप्रैल 1854 को मेजर एलिस ने रानी को किला छोड़ने का फरमान सुनाया और पेंशन लेकर
उन्हें रानी महल में ठहरने के आदेश दे दिए। फरमान के बाद रानी लक्ष्मीबाई को पांच
हजार रुपये की पेंशन पर किला छोड़कर रानी महल में रहना पड़ा। अंग्रेजों के आदेश पर
रानी ने किला तो छोड़ दिया लेकिन किला छोड़ने की मलाल रानी के मन को हमेशा झकझोरता
रहता था.. फिर रानी लक्ष्मी बाई ने झांसी को बचाने के लिए बागियों की फौज तैयार
करने का फैसला किया... उन्हें गुलाम गौस ख़ान,
दोस्त ख़ान,
खुदा बख़्श,
सुंदर-मुंदर,
काशी बाई,
लाला भऊ बख़्शी, मोती भाई,
दीवान रघुनाथ सिंह और दीवान जवाहर सिंह से मदद ली.
1857की बगावत ने अंग्रेजों का फोकस बदला और झांसी में रानी ने 14000 बागियों की सेना
तैयार की. रानी लक्ष्मीबाई, अंग्रेजों से भिड़ना नहीं चाहती थीं लेकिन सर ह्यूज रोज की अगुवाई में
जब अंग्रेज सैनिकों ने हमला बोला, तो कोई और विकल्प नहीं बचा....
झांसी 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख केन्द्र बन
गया था... रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को लेकर स्वयंसेवक सेना का गठन
करना शुरू कर दिया.. सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध
प्रशिक्षण भी दिया गया.. साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में सहयोग दिया.. लेकिन
1857 में पड़ोसी राज्य ओरछा और दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। लेकिन
समय रहते रानी लक्षमी बाई ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया.. जून 1857 से मार्च 1858
तक 10 महीने की अवधि में लक्ष्मीबाई ने झांसी के प्रशासन ब्रिटिशों से अपने हाथों
में लेने के बाद, उसमें काफी सुधार किया। खजाना भर गया। सेना
सुव्यवस्थित हो गई। पुरुषों की सेना की बराबरी में महिलाओं की भी सेना थी। रानी ने
अपनी कुछ तोपों के नाम रखे थे गर्जना, भवानीशंकर और
चमकती बिजली। ये तोपें महिलाओं और पुरुषों द्वारा बारी-बारी से दागी जाती थी।
पुराने शस्त्र तेज किए गए। नए शस्त्र तैयार किए गए। उन दिनों झांसी में प्रत्येक
घर में युद्ध की तैयारियां हो रही थी और सब कुछ रानी के मार्गदर्शन में किया जा
रहा था। 23 मार्च 1858 को सर हयूरोज की सेना ने युद्ध की घोषणा कर दी। 10-12 दिनों
में ही झांसी का छोटा-सा राज्य विजय के प्रकाश और पराजय की छाया में डोलता रहा। एक
सफलता पर जहां राहत मिलती थीं वहीं दूसरे क्षण पराजय का आघात लगता था। आखिरकार अंग्रेजो
ने झाँसी पर चढाई कर दी. रानी के ओर से भी युद्ध की पूरी तैयारी थी... किले की
दीवारों पर तोपे लगा दी गई... रानी की कुशल रणनीति और किलेबंदी देखकर अंग्रेजो ने
दांतों तले अंगुलियाँ दबाने लगे थे... लेकिन फिर भी हाथी की तरह मदमस्त अंग्रेजी
सेना ने किले पर चारो ओर से आक्रमण कर दिया... 8 दिन तक घमासान युद्ध होता रहा..
रानी ने संकल्प लिया की अंतिम सांस तक झाँसी के किले पर फिरंगियों का झंडा नहीं
फहराने देंगी... लेकिन रानी के सेना के एक सरदार ने गद्दारी की और अंग्रेजी सेना
के लिए किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया... अंग्रेजी सेना किले में घुस आई... झाँसी
के वीर सैनिको ने अपनी रानी के नेतृत्व में दृढ़ता से दुश्मन का सामना करते रहे... लेकिन
शत्रु की सेना ने झाँसी की सेना को घेर लिया... इस दौरान किले के मुख्यद्वार के
रक्षक सरदार खुदाबख्स और तोपखाने के अधिकारी सरदार गुलाम गौस खान की वीरतापूर्ण
लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए... सरदार गुलाम गौंस खान के शहीद होने के बाद रानी
को उनके विश्वासपात्र सरदारों ने कालपी जाने की सलाह दी. हलांकि रानी अपनी सेना को
छोड़कर नहीं जाना चाहती थी... समय की गंभीरता को देखते हुए, अपने
राज्य की भलाई के लिए रानी लक्ष्मीबाई झाँसी छोड़ने के लिए राजी हो गयी...
स्वतंत्रता की आग पूरे देश में धधक उठी थी..
रानी लक्ष्मी बाई ने ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरू कर दिया था... अंग्रेजों के
पैर उखङने लगे। झांसी के प्रजा ने भी रानी के साथ स्वर में स्वर मिला कर कहने लगे
हम अपनी झाँसी नहीं देंगे... युद्ध के दौरान महल में अंग्रेजों से घिरने के बाद रानी
को झांसी से सुरक्षित निकालने के लिए एक योजना बनाई गयी. इस योजना में झलकारी बाई
ने प्रमुख भूमिका निभाई थी... झलकारी बाई रानी द्वारा बनाए महिला सैनिक थी. झलकारी
बाई रानी की अन्तरंग सहेली होने के साथ–साथ रानी की हमशक्ल भी थी. अपने प्राणों की
परवाह किये बगैर जिस प्रकार उसने रानी की रक्षा की यह अपने में एक अद्भुत कहानी
है. जब रानी को किले से सुरक्षित निकालने की योजना बनाई गई तो झलकारी बाई ने रानी
के वेश में युद्ध करने के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया... रंग–रूप
में रानी से समानता होने के कारण अंग्रेजो को भ्रमित करना आसान था. वे रानी की
पोशाक पहन कर युद्ध करती हुई बाहर आ गई... उनके रण-कौशल और रंगरूप को देखकर
अंग्रेज भ्रम में पड़ गये... इसी बीच रानी को बच निकलने का मौका मिल गया. उधर झाँसी
छोड़ने के बाद रानी अपने कुछ सैनिको के साथ अपना घोड़ा कालपी की तरफ भगा रही थी...
पीछा करते सैनिको ने रानी को देखते ही उन पर गोलियाँ दागनी शुरू कर दी... एक गोली
रानी की जांघ में जा लगी... उनकी गति–मंद पड़ते ही अंग्रेज सैनिको ने उन्हें घेर
लिया. दोनों दलों में भयंकर संघर्ष हुआ. रानी घायल और थकी हुई थी, परन्तु
उनकी वीरता और साहस में कोई कमी नहीं आई थी. इस संघर्ष के दौरान एक अंग्रेज
घुड़सवार ने रानी की एक महिला सैनिक मुन्दर पर हमलाकर उसे मार दिया. यह देखकर रानी
क्रोध से तमतमा उठी. उन्होंने उस घुड़सवार पर भीषण प्रहार किया और मृत्यु के घाट
उतार दिया... कालपी की ओर घोडा दौड़ाते हुए अचानक मार्ग में एक नाला आया. नाले को
पार करने के प्रयास में घोडा गिर गया. इस बीच अंग्रेज घुड़सवार निकट आ गये. एक
अंग्रेज ने रानी के सिर पर प्रहार किया.. गंभीर रूप से घायल होने पर भी वे
वीरतापूर्वक लड़ती रही. और अंततः अंग्रेजो को रानी और उनके साथियों से हार मानकर
मैदान छोड़ना पड़ा... घायल रानी को उनके साथी बाबा गंगादास की कुटिया में ले गये.
पीड़ा के बावजूद रानी के चेहरे पर दिव्य तेज था. अत्यधिक घायल होने के कारण रानी
वीरगति को प्राप्त हो गई और क्रान्ति की यह ज्योति सदा के लिए लुप्त हो गयी... बाबा
गंगादास ने तुरंत कुटिया को ही चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया ताकि
अंग्रेज उनको छू भी न सकें। ग्वालियर में आज भी रानी लक्ष्मीबाई की समाधी उनकी
गौरवगाथा की याद दिलाती है। देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी
उनकी प्रशंसा की थी। लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की थी
कि- रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय और विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक थीं।
ऐसी वीरांगना से आज भी राष्ट्र गर्वित एवं पुलकित है। उनकी देश भक्ती की ज्वाला को
काल भी बुझा नही सकता। रानी लक्ष्मीबाई को शब्दों में बांधा नही जा सकता वो तो
पुरे विश्व में अद्मय साहस की परिचायक हैं।
पति की मृत्यु के बाद अंग्रेजों की बुरी नजर झांसी पर पड़ी तो, उन्होंने सत्ता की
बागडोर अपने हाथों में लेते हुए उनसे लोहा लिया. बाद में वह ‘झांसी की रानी’ के रुप में विख्यात
हुई और इतिहास में उनकी वीरता के किस्से स्वर्ण अक्षरों से लिखे गए...
इसमें कोई दो राय नहीं की सन् सत्तावन में
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुवात रानीलक्ष्मी बाई के द्वारा हुई। रानी ने अंग्रेजों
को ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की थी। रानी के
कुशल और विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ और ख़ुदा बक्श.. मुन्दर और झलकारी सखियों ने
भी साहस के साथ हर पल रानी का साथ दिया था.. रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़
सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया था।
अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे
परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम
सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूरोज़ ने अनुभव किया कि
सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी
के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने क़िले का दक्षिणी
द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट और हिंसा करने लगे...
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