मंगलवार, 29 मार्च 2022

सहस्त्राब्दी के सबसे महान चिंतक कार्ल मार्क्स

 

वो शख्सियत जिन्होंने दुनिया के मजदूरों को एक मंच पर इकट्‌ठे होने का नारा दिया। उसने ताउम्र मजदूर और कामकाज करने वाले लोगों के लिए अपनी आवाज बुलंद करते रहे। उसने कभी कोई श्रम आधारित नौकरी नहीं की फिर भी मजदूरों की मजबूरियों पर मरहम लगाना भली-भांति जानते थे। दुनिया भर में कामगारों की स्थिति को दोखते हुए उन्होंने कहा था कि दुनिया के मजदूरों के पास अपनी जंजीर के अलावा खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उनके क्रांतिकारी और कट्टर लेखों के कारण ही उन्हें जर्मनी, बेल्जियम और फ्रांस से भगा दिया गया था। उनके विचारों का असर इतना गहरा था कि दुनिया की व्यवस्थाएं बदल दी। जी हां हम बात कर रहे हैं सहस्त्राब्दी के सबसे महान चिंतक कार्ल मार्क्स की। अगर विश्व इतिहास में झांक कर किसी ऐसे दार्शनिक-चिंतक की तलाश करें, जिनके विचारों ने दुनिया पर सबसे ज्यादा असर डाला है, तो उनमें कार्ल मार्क्स का नाम सबसे उपर आता है। कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री, पत्रकार और सोशल इंजीनियरिंग के प्रणेता थे। आज भी उनके विचार देश की सत्ता में महिलाओं और सर्वहारा वर्ग की हिस्सेदारी, पिछड़ों के अधिकारों का सम्मान करने और साथ लेकर चलने पर बल देते हैं। मार्क्स महिलाओं के अधिकारों को महत्त्वपूर्ण मानते थे। उनका कहना था कि कोई भी व्यक्ति जो इतिहास की थोड़ी भी जानकारी रखता है, वह यह जानता है कि महान सामाजिक बदलाव बिना महिलाओं का उत्थान किये असंभव है। मार्क्स का मानना था कि महिलाओं की सामाजिक स्थिति को देखकर किसी समाज की सामाजिक प्रगति मापी जा सकती है। मार्क्स ने विश्व को संघर्ष करने की प्रेरणा दी। मार्क्स ने एक ऐसे समतामूलक समाज की संकल्पना की जिसमें स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब, काले-गोरे जैसे बिना मतभेद के समानता स्थापित हो सके। कार्ल मार्क्स ने मानवता को धर्म के ऊपर रखा तभी तो उसने धर्म की आलोचना करते हुए उसे अफीम की संज्ञा दी थी। मार्क्स चाहते थे कि हमारी ज़िंदगी पर हमारा खुद का अधिकार हो, हमारा जीना सबसे ऊपर हो।

कार्ल मार्क्स का जन्म एक यहूदी परिवार में प्रशिया के राइन प्रांत के ट्रियर नगर में 5 मई, 1818 को हुआ था। मार्क्स के पिता एक वकील थे और उनकी प्रारंभिक शिक्षा ट्रियर शहर के एक स्थानीय स्कूल जिमनेजियम में पूरी हुई। 17 वर्ष की आयु में उन्होंने कानून की पढ़ाई के लिए बॉन विश्वविद्यालय में एडमिशन लिया। इसके बाद मार्क्स ने बर्लिन और जेना विश्वविद्यालयों में साहित्य, इतिहास और दर्शन की पढ़ाई की। पढ़ाई में बहुत आगे रहने वाले मार्क्स ने साल 1839-41 में दिमॉक्रितस और एपीक्यूरस के प्राकृतिक दर्शन पर अपना रिसर्च लिखा और पीएचडी पूरी की। ट्रायर में 1836 की गर्मी की छुट्टी बिताते हुए, मार्क्स अपनी पढ़ाई और अपने जीवन के बारे में अधिक गंभीर हो गए। फिर अक्टूबर 1836 में कार्ल मार्क्स बर्लिन पहुंचे जहां विश्वविद्यालय के लॉ फैकल्टी में मैट्रिकुलेटिंग और मित्तलस्ट्रॉस में एक कमरा किराए पर लिया। 1837 तक, मार्क्स उपन्यास और फिक्शन दोनों तरह की रचनाएं लिखने लगे थे। मई 1838 में मार्क्स के पिता की अचानक मृत्यु हो गई, जिसके बाद परिवार को घोर आर्थिक परेशानियों का समना करना पड़ा। मार्क्स भावनात्मक रूप से अपने पिता के बहुता करीब थे इसलिए पिता के मृत्यु के बाद वो काफी परेशान रहने लगे। इन्हीं दिनों मार्क्स एक अकादमिक करियर पर विचार कर रहे थे, लेकिन सरकार के उदारवाद और यंग हेगेलियन के बढ़ते विरोध के कारण मार्क्स का सपना अधूरा ही रह गया। फिर मार्कस साल 1842 में कोलोन चले गए, जहां वो पत्रकार बन गए। और फिर समाजवाद पर अपने विचारों और अर्थशास्त्र में अपनी विकासशील रुचि को व्यक्त करते हुए कट्टरपंथी समाचार पत्र राइनिशे ज़ितुंग के लिए लिखने लगे। इससे पहले मार्क्स ने मार्च 1841 में आर्चीव डेस नास्तिकस नाम से एक पत्रिका के लिए काम कर रहे थे हलांकि वो पत्रिका किसी कारण बस प्रकाशित नहीं हुई।

साल 1843 में कार्ल मार्क्स ने कट्टर वामपंथी पेरिस के अखबार, फ्रेंच फ्रांस्सिके जहरबुचर के सह-संपादक बन गए और पेरिस में ही रहने लगे। पेरिस में रहते हुए एर्नोल्ड र्युज के साथ मार्क्स ने जर्मन-फ्रैंच वार्षिक जर्नल शुरु किया, जिसने पेरिस की राजनीति में अपनी मुख्य भूमिका निभाई, हालांकि एर्नोल्ड और मार्क्स के बीच आपसी मतभेद के चलते यह जर्नल ज्यादा दिन तक नहीं चल सका। इसके बाद मार्क्स ने 1844 में अपने दोस्त फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर युवा हैगीलियन ब्रूनो ब्युर के दार्शनिक सिद्धांतों का क्रिटिसिज्म का काम करना शुरु कर दिया और फिर इसके बाद एक साथ दोनों ने होली फॉमिली नाम के पब्लिकेशन शुरु किया। इसके बाद मार्क्स बेलिज्यम के ब्रुसेल चले गए और यहां वे वोर्टवार्ट्स नाम के न्यूजपेपर के लिए काम करने लगे, यह पेपर बाद में कम्यूनिस्ट लीग बनकर उभरा।

 

धीरे-धीरे कार्ल मार्क्स पत्रकारिता में अपनी जड़े जमा चुके थे और समाजवाद के लिए काम करना शुरू कर दिया था। कार्ल मार्क्स ने ब्रुसेल में हैगीलियन के साथ काम किया क्योंकि वे दोनों एक ही विचारधारा के थे। इस दौरान उन्होंने डाई ड्युटश्चे आइडियोलोजी लिखी, जिसमें उन्होंने समाज के ऐतिहासिक ढांचे के बारे में वर्णन किया और यह बताया कि किस तरह आर्थिक रुप से सक्षम वर्ग मजदूर और गरीब बर्ग को नीचा दिखाता आया है। पत्रकारिता के माध्यम से कार्ल मार्क्स ने मजदूर वर्ग के नेताओं के आंदोलन के साथ दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की। और फिर 1846 में उन्होंने कम्यूनिस्ट कोरेसपोंडेंस कमेटी की नींव रखी। इसके बाद इंग्लैंड के समाजवादियों ने उनसे प्रेरित होकर कम्यूनिस्ट लीग बनाई और इस दौरान एक संस्था ने मार्क्स और एंगलस से कम्युनिस्ट पार्टी के लिए मेनिफेस्टो लिखने का कहा। मार्क्स मेनिफेस्टो लिखने के लिए राजी हो गये और कुछ दिनों बाद 1848 में कम्युनिस्ट पार्टी का मेनिफेस्टो जारी हुआ। कम्युनिस्ट घोषणापत्र मार्क्स की अमर रचना है। जो कि लंदन से फरवरी 1848 में प्रकाशित हुई यह वैज्ञानिक कम्युनिज्म का कार्यक्रम संबंधी दस्तावेज है। इसमें ही सबसे पहली बार सर्वहारा के क्रांतिकारी सिद्धांतों की यह संक्षिप्त और सरल व्याख्या की गई थी।

इसके बाद 1849 में कार्ल्स मार्क्स को बेल्जियम से निकाल दिया गया, जिसके बाद वे फ्रांस चले गए और वहां उन्होंने समाजवाद की क्रांति शुरू कर दी, लेकिन वहां से भी उन्हें बाहर निकाल दिया गया, जिसके बाद वे फिर लंदन आ गए। लेकिन यहां पर भी उनके संघर्ष खत्म नहीं हुए उन्हें ब्रिटेन ने नागरिकता देने से मना कर दिया। इन्हीं दिनो जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया में क्रांति शुरू हो गई। और मार्क्स राइनलैंड वापस लौट गए। मार्क्स ने कोलोन में डेमोक्रेटक बोर्जियोसी और वर्किंग क्लास के बीच गठबंधन की नीति की सराहना की और कम्यूनिस्ट के मेनिफेस्टो को नष्ट करने एवं कम्यूनिस्ट लीग को खत्म करने के फैसले को समर्थन किया। इसके बाद उन्होंने एक न्यूज पेपर के माध्यम से अपनी नीति समझाने की कोशिश करते रहे। मार्क्स धीरे धीरे पत्रकारिता ध्यान हटाते हए कैपिटिलज्म और इकनॉमिक की थ्योरी में अपना ध्यान केन्द्रित करने लगे। उधर 1849 के अंत तक कम्युनिस्ट लीग में वैचारिक दरार के कारण पूरे यूरोप में व्यापक विद्रोह होने लगे थे। विद्रोह को देखते हुए एंगेल्स और मार्क्स को डर हुआ कि यह पार्टी के लिए कहीं ना कहीं नुकसानदेह होगा। मार्क्स जल्द ही समाजवादी जर्मन वर्कर्स एजुकेशनल सोसाइटी के साथ शामिल हो गए लेकिन गिल्ड के सदस्यों के साथ पतन के बाद उन्होंने 17 सितंबर, 1850 को इस्तीफा दे दिया। मार्क्स ने क्रांतिकारी श्रमिक वर्ग को फिर से संगठित करने के तौर पर काम करने लगे। 1863 में मार्क्स ने न्यूयॉर्क ट्रिब्यून को छोड़ दिया और 'लुई नेपोलियन के अठारहवें ब्रुमायर' लिखा और फिर 1864 में, वह ‘इंटरनेशनल वर्कर्समैन एसोसिएशन’ में शामिल हो गए।

साल 1866 में मार्क्स ने अपने अर्थशास्त्रीय अध्ययन के निष्कर्ष पर नए सिरे से लिखना आंरभ किया और उसका प्रथम भाग 1867 में 'दास कैपिटल' के नाम से प्रकाशित किया। दास कैपिटल एक ऐसी पुस्तक है जिसकी रचना में कार्ल मार्क्स ने पूंजी और पूंजीवाद का विश्लेषण के साथ-साथ मजदूरवर्ग को शोषण से मुक्त करने के उपाय बताये गए हैं। मार्क्स लिखते हैं कि मनुष्य की चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितियों की। लेकिन न्यूटन के गति के नियम के अनुसार बिना बाह्य बल के कोई चीज हिलती भी नहीं है। अत; भौतिक परिस्थितियां अपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलती है। मार्क्स ने कहा कि विचार से वस्तु की उत्पत्ति नहीं हुई है, बल्कि वस्तु से विचार की उत्पत्ति हुई है। जैसे न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत जहां सेब का गिरना पहले से मौजूद था। इसी प्रकार ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया है, बल्कि मनुष्य ने ईश्वर की अवधारणा को गढ़ा है। 'दास कैपिटल' के प्रकाशित होने के कुछ ही वर्षों के बाद रूस में साम्यवादी क्रांति हुई।

अपने जीवन के अंतिम दशक में मार्क्स की सेहत बिगड़ने लगी थी और उनकी रचनात्मक ऊर्जा कम होने लगी। वह अपने परिवार की ओर मुड़ गया और यह माना जाता है कि वह अपने राजनीतिक विचारों को लेकर जिद्दी हो गया। 1881 में ज़ार अलेक्जेंडर द्वितीय की हत्या के बाद मार्क्स ने रूसी कट्टरपंथियों के निस्वार्थ साहस की सराहना की जिन्होंने सरकार को उखाड़ फेंकने का लक्ष्य रखा। राजनीति से हटने के बाद भी उन्होंने मजदूर वर्ग के समाजवादी आंदोलनों पर काफी प्रभाव बनाए रखा। कार्ल मार्क्स के जीवन के आखिरी दिनों में उन्हें गंभीर बीमारियों ने घेर लिया था। वहीं 1881 में पत्नी की मौत के बात वे काफी उदास रहने लगे थे इसी उदासीनता के चलते उनकी बीमारी भी रिकवर नहीं हो सकी, जिसके चलते 14 मार्च, 1883 में लंदन में उनकी मृत्यु हो गई। लदंन स्तित कार्ल मार्क्स की कब्र हाईगेट सेमेट्री में है। कब्र के ऊपर मार्क्स की प्रतिमा लगी है और नीचे लिखा है, "दुनिया भर के मजदूरों एक हो जाओ"। वैसे तो मार्क्स की क्रांतिकारी राजनीति की विरासत मुश्किलों भरी रही है। लेकिन समाज में एक मजबूत सोशल इंजीनियरिंग उनकी विचारों से ही प्रेरित मानी जाती है।

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शैक्षणिक क्रांति के अग्रदूत योहानेस गुटेनबर्ग

 

अगर आप प्रिंटिंग के इतिहास को देखेंगे तो पता चलेगा कि 5 सौ से 6 सौ साल पहले तक किताबों को जनमानस तक पहुंचाने का कोई साधन ही नहीं था। एक जमाना था जब लोग हाथ से किताब लिखते थे और एक किताब को पूरा करने में सालों साल लगा देते थे। लेकिन तभी 15वीं सदी में जर्मनी में एक क्रांति हुई। योहानेस गुटेनबर्ग ने पहली बार मैकेनिकल प्रिंटिंग प्रेस बनाई और फिर गुटेनबर्ग ने अपनी मशीन से पहली बार किताब भी छापी। जर्मन के रहने वाले योहानेस गुटेनबर्ग को आधुनिक मुद्रणकला का जनक माना जाता है। गुटनबर्ग के टाइप-मुद्रण के आविष्कार से पहले मुद्रण का सारा कार्य ब्लाकों में अक्षर खोदकर किया जाता था। जोहनेस गुटेनबर्ग जिन्होंने मुद्रण का वो तरीका प्रदान किया जिसमें प्रत्येक के लिए नये विचार उपलब्ध कराए।

छपाई की कला को नए सिरे से विकसित करनेवाले योहानेस गुटेनबर्ग के जीवन का काफी भाग अनुमानों पर ही आधारित है। साल 1398 में राइन नदी की घाटियों में जर्मनी के सबसे धनी शहरों में से एक मेंज के एक कस्बे में योहानेस गुटेनबर्ग का जन्म हुआ था। उनके पिता पेशे से सुनार थे और मेंज के आर्कबिशप द्वारा चलाई जानेवाली टकसाल में कार्य किया करते थे। उनका काम धातु पर छपाई और नक्काशी करना था। योहानेस गुटेनबर्ग का बचपन का नाम गेन्स फ्लैश था जो आगे चलकर योहानेस गुटेनबर्ग कहलाने लगे। कहा जाता है कि दुनिया को बदल डालने वाली एक रहस्यमय मुद्रण मशीन पर कार्य करते हुए योहानेस गुटेनबर्ग ने अपनी दुकान में बंद रह कर पूरी जिंदगी गुजार दी। बहरहाल सन 1411 में लगभग 13 साल की उम्र में योहानेस ने पिता के साथ टक्साल जाना शुरू किया और तब उन्होंने सोने के सिक्के बनाना सिखा। इसी दौरान प्रशाशकों और भूस्वामियों के बीच हुए संघर्ष के कारण गुटनबर्ग को अपने पूरे परिवार के साथ मेंज से निर्वासित होना पड़ा। जिसके बाद योहानेस गुटेनबर्ग फ़्रांस के स्ट्रासबर्ग चले गये जंहा उन्होंने सन 1434 से सन 1444 तक रत्न तराशने, आइना बनाने, ब्लाक प्रिंटिंग करने जैसे अनेको कार्य किये।

 

अगले 15 वर्षों तक गुटेनबर्ग का जीवन एक रहस्य बना रहा, जब तक कि 1434 में उनके द्वारा लिखे गए एक पत्र ने संकेत नहीं दिया कि वह अपनी मां के रिश्तेदारों के साथ जर्मनी के स्ट्रासबर्ग में रह रहे थे। पत्र में उन्हे इस बात का भी जिक्र किया था कि स्ट्रासबर्ग में रहते हुए उन्होंने बतौर सुनार काम भी कर रहे थे। साल 1440 में स्ट्रासबर्ग में रहते हुए गुटेनबर्ग ने "एवेंटूर अन्ड कुन्स्ट" नामक पुस्तक में अपने प्रिंटिंग प्रेस रहस्य का खुलासा किया है। साल 1448 तक गुटेनबर्ग अपने पुराने शहर मेंज वापस आ गए। मेंज वापस आकर गुटेनबर्ग ने अपने बहन के पति अर्नोल्ड गेल्थस और मेंज के दो व्यवसायियों से कर्ज लेकर पैसे इकट्ठे किया। जिसके बाद साल 1450 में गुटेनबर्ग के प्रेस में प्रिंटिंग का काम शुरू हो गया। इस दौरान उन्हें अनेक बाधाओं का सामना भी करना पड़ा।

अपने नए मुद्रण व्यवसाय को धरातल पर उतारने के लिए गुटेनबर्ग ने जोहान फस्ट नामक एक अमीर साहूकार से 800 गिल्डर उधार लिए थे। क्योंकि इसी दौरान गुटेनबर्ग को बाइबिल के मुद्रण के लिए कैथोलिक चर्च से ऑफर मिल गया था। साल 1452 तक, गुटेनबर्ग ने अपने मुद्रण प्रयोग को जारी रखने के लिए जोहान फस्ट नामक अमीर साहूकार के साथ एक तरह से व्यापारिक साझेदारी की और साथ ही अपनी मुद्रण प्रक्रिया को जारी भी रखा। साल 1455 तक योहानेस गुटेनबर्ग दिन रात मेहनत कर बाइबिल की कई प्रतियां छापी। लैटिन में पाठ के तीन संस्करणों से मिलकर, गुटेनबर्ग बाइबिल ने रंग चित्र के साथ प्रति पृष्ठ 42 प्रकार की पंक्तियों को चित्रित किया।

1456 में गुटेनबर्ग की प्रिंटिंग प्रेस से गुटेनबर्ग बाइबिल की पहली प्रति छप कर निकली। इसे 42 लाइनों वाली बाइबिल भी कहते हैं। यहीं से गुटेनबर्ग क्रांति की शुरुआत होती है। गुटेनबर्ग द्वारा बाइबिल की 300 प्रतियां प्रकाशित कर पेरिस और फ्रांस भेजी गई। गुटेनबर्ग की प्रिंटिंग प्रेस की सफलता को देखते हुए सहूकार जोहान फस्ट को लगा कि यही वक्त है गुटेनबर्ग से पैसे वसूलने का। अचानक जोहान फस्ट मुनाफे में हिस्सा मांगने लगा। ऐसा न करने पर उन्होंने पूरा पैसा एक साथ लौटाने के लिए दबाव डाला। फस्ट की धमकियों की चिंता न करते हुए गुटेनबर्ग ने पैसा नहीं लौटाया और बाइबिल की प्रतियां छापता रहा। अंततः फस्ट ने योहानेस गुटेनबर्ग के खिलाफ अदालत में मुकदमा कर दिया। अदालत ने गुटेनबर्ग को मय ब्याज के पैसा लौटाने का आदेश दिया। ऐसा न कर पाने पर उसने गुटेनबर्ग की कार्यशाला, सारा साज-सामान और बाइबिल की प्रतियां फस्ट के हवाले कर दी। ऐसी परिस्थितियों में गुटेनबर्ग अपने अमीर प्रतिद्वंद्वी की प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं कर सका।

साल 1460-1462 के दौरान योहानेस गुटेनबर्ग मुद्रण का कार्य फिर से शुरू करने में कामयाब रहे। लेकिन उन्हीं दिनों 1462 में आर्कबिशप एडोल्फ द्वितीय द्वारा शहर पर नियंत्रण के विवाद में मेंज पर कब्जा कर लिया था। इस दौरान एक बार फिर गुटेनबर्ग के मुद्रण व्यवसाय नष्ट हो गए थे। शहर के कई टाइपोग्राफर जर्मनी और यूरोप के अन्य हिस्सों में भाग गए। गुटेनबर्ग मेंज में रहे, लेकिन एक बार फिर गरीबी में पड़ गए। आर्कबिशप ने उन्हें 1465 में हॉफमैन का खिताब दिया। 3 फरवरी, 1468 को उनका निधन हो गया और उन्हें जर्मनी के शहर एल्टविले में फ्रांसिस्कन कॉन्वेंट के चर्च में दफनाया गया। योहानेस गुटेनबर्ग भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी छपी बाइबिलें सुरक्षित है। और योहानेस गुटेनबर्ग की निजी जीवन के पहलू अनछपे रह गए।

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अगर सफल होना चाहते हैं तो जानिए स्टीव जॉब्स को

 स्टीव जॉब्स का जन्म 24 फरवरी 1955 को कैलिफोर्निया के सन फ्रांसिस्को में हुआ था। जब उनका जन्म हुआ तो उनके माता-पिता ने उन्हें गोद दे दिया। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके माता-पिता अविवाहित थे। उनके पिता एक रिफ्यूजी थे। जिनका नाम अब्दुल फतह जंदाली था और माता का नाम जोओनी शिबल था जो कि एक अमेरिकन सिटीजन थी। अब्दुल फतह सीरिया देश के अरब मुसलमान थे जोकि विस्कंसिन यूनिवर्सिटी से अपनी पीएचडी कर रहे थे। तो उस दौरान वो जोआन शिबल से मिले। वे दोनों एक-दूसरे के साथ रिलेशनशिप में आ गए स्टीव जॉब्स की मां के पिता ने अपनी बेटी की शादी एक रिफ्यूजी से करने से मना कर दिया। इस वजह से स्टीव के माता पिता ने ये तय किया कि जन्म के बाद हम बच्चे को किसी ऐसे व्यक्ति को गोद दे देंगे जो कम से कम ग्रेजुएट तक की पढाई जरूर की हो। क्यों कि वे चाहते थे कि उनका बच्चा भी आगे चलकर ग्रेजुएशन करें। इसके बाद स्टीव के असली माता पिता को एक ऐसे इंसान से मुलाकात हुई जिन्हें बच्चे की जरूरत थी। लेकिन बाद में पता चला उस कपल ने, उनसे झूठ बोला था। वह ग्रेजुएट नहीं थे। लेकिन उन्होंने स्टीव जॉब के माता पिता को दिलासा दिलाया कि वह उसकी ग्रेजुएशन पूरी करवाएंगे।

 

क्लारा और पाउल ने इस बच्चे को गोद ले लिया और बच्चे का नाम स्टीव पाउल जॉब्स रखा। जिन्हें आज हम सभी स्टीव जॉब के नाम से जानते हैं। क्लारा एक बड़ी कंपनी में अकाउंटेंट थी। पाउल एक कॉस्ट गार्ड मकैनिक थे। स्टीव जॉब ने अपना बचपन कैलिफोर्निया के माउंट व्यू में बिताया। जिस जगह को, आज हम सिलिकॉन वैली के नाम से जानते हैं। सिलिकॉन वैली एक ऐसी जगह है। आपको जानकर हैरानी होगी की दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों का जन्म सिलिकॉन वैली में ही हुआ। जैसे कि फेसबुक, गूगल, अमेजॉन, एप्पल और बहुत सारी। स्टीव के दत्तक पिता पॉल एक अच्छे इंजीनियर होने के कारण उपकरणों से जुड़ा हर कुछ बना सकते थे। उनको अगर किसी भी चीज की जरूरत पड़ती तो वह उसे बना लेते थे। परिवार में इंजीनियरिंग का ऐसा माहौल देखकर स्टीव की इलेक्ट्रॉनिक्स और इंजीनियरिंग में रुचि बढ़ने लगी। शुरू के दिनों में स्टीव स्कूल जाने से भी कतराते थे। स्कूल गये भी तो कोई दोस्त नहीं बनाया। वह हमेशा अकेले ही रहा करते थे। स्टीव जॉब्स जब अपने पूरे परिवार के साथ कैलिफोर्निया के लोस एल्टोस चले गए तो वहां पर स्टीव ने होमस्टेड हाई स्कूल ज्वाइन किया जहां उसकी दोस्ती स्टीव वोजनियाक से से हुए। स्टीव जब 13 साल के हुए तब स्टीव वोजनियाक ने ही स्टीव जॉब्स को एचपी के संस्थापक बिल हेवलेट से स्कूल प्रोजेक्ट के सिलसिले में मिलवाया। बिल हेवलेट स्टीव जॉब्स से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने जॉब्स को एचपी में इंटर्नशिप की नौकरी दे दी।

 

धीरे-धीरे स्टीव का क्लास में इंटरेस्ट कम होता चला गया। हाई स्कूल में उन्होंने अपने सिलेबस में रुचि कम दिखाते हुए साहित्यिक पुस्तकों को पढ़ना शुरू कर दिया। अब जॉब्स की रूचि इलेक्ट्रॉनिक्स और साहित्य बन चुकी थी। साल 1971 में स्कूल से पास आउट होने के बाद साल 1972 में स्टीव पोर्टलैंड के रीड कॉलेज में दाखिल हुए। यह कॉलेज काफी महंगा था जो स्टीव के माता-पिता के लिए मुश्किल था। एक सेमेस्टर के बाद स्टीव ने अपने माता-पिता को बिना बताए ही कॉलेज छोड़ दिया। कॉलेज से ड्रॉपआउट होने के बाद जॉब्स ने कैलीग्राफी सीखने के लिए एक कोर्स में दाखिला लिया। इस कैलीग्राफी के कोर्स से उन्होंने फौंट्स को अच्छा बनाने के लिए बहुत सारी चीजें सिखी। स्टीव जॉब्स की लाइफ का वह समय था। जब वो अपने दोस्तों के हॉस्टल रूम में फर्श पर सोते थे, वे पैसों और खाने का इंतजाम करने के लिए कोको कोला की बोतल रिसाइकल करते थे। साथ ही हर संडे को कैंपस के पास में मौजूद मंदिर में जाकर मुफ्त खाना खाया करते थे। भारत आने से पहले स्टीव जॉब्स साइकेडेलिक ड्रग्स भी लेना शुरू कर दिया था। उन्होंने अपने एक इंटरव्यू बताया था कि लीसर्जिक एसिड डाईएथिलेमाइड (LSD) का नशा करना उनके जीवन के कुछ बड़े डिसीजनन में से एक था।

 

स्टीव जॉब्स 1974 में लोस एल्टोस में वापस अपने घर आ गए और वहां काम की तलाश करने लग गए। उन्हें अटारी नामक कंपनी ने टेक्नीशियन की जॉब मिली। इस जॉब से उन्होंने पैसे जमा कर भारत में यात्रा पर जाने की योजना बनाई। वह अपने दोस्त के साथ 1974 में आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए भारत आए। 7 महीने तक भारत में रहने के बाद वापस अमेरिका चले गए। अटारी कंपनी में वापस आने पर उन्हें चिप के कार्य के लिए कहा गया। स्टीव को सर्किट के बारे में ज्यादा नॉलेज नहीं था तो उन्होंने अपने दोस्त वोजनियाक से कहा कि वह अगर उसकी मदद करेगा तो उसे 50% हिस्सा दे देंगे। उन्हीं दिनों एक बार स्टीव जॉब्स के दोस्त वोजनियाक ब्लू बॉक्स नाम की एक हैकिंग डिवाइस लेकर उनके पास आए जिसके जरिए लोग मुफ्त में अनलिमिटेड इंटरनेशनल कॉल कर सकते थे। जो कि स्टीव जॉब्स पहले से ही इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए पागल थे। इसीलिए उन्होंने कुछ ही दिनों में वोजनियाक के साथ मिलकर अपनी खुद की ब्लू बॉक्स डिवाइसेस बनाकर उन्हें बेचना शुरू कर दिया। हालांकि उन्हें पता था कि यह काम लीगल नहीं है। एक न एक दिन वह पकड़े जाएंगे। इसलिए उन्होंने ब्लू बॉक्स बनाना बंद कर दिया।

 

मार्च 1976 में वोजनियाक ने एप्पल प्रथम कंप्यूटर का निर्माण किया और उसे स्टीव जॉब्स को दिखाया। उसी साल अप्रैल के महीने में स्टीव जॉब्स, वोजनियाक तथा रोनाल्ड वायने ने अपने पिता के गेराज में एप्पल कंपनी की स्थापना की। रोनाल्ड वायने कंपनी में बहुत कम दिनों तक ही ठहरे और स्टीव और वोजनियाक ही मुख्य रूप से संचालक बने रहे। कुछ ही दिनों बाद उसी साल फाइनली एप्ल ने अपना पहला कंप्यूटर मार्केट में लांच किया। जिसका नाम एप्पल वन था। हलांकि एप्पल-1 के मार्केट में आने के बाद, इसकी इतनी ज्यादा बिक्री नहीं हुई। क्योंकि ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं था कि पर्सनल कंप्यूटर क्या होते हैं और उन्हें ऑपरेट कैसे किया जाता है। लेकिन एप्पल-1 की बिक्री के बाद एप्पल ने इतने पैसे जुटा लिए थे, कि वह एक नए कंप्यूटर पर काम कर सकें। साल 1977 में उन्होंने अपना दूसरा कंप्यूटर मार्केट में लांच किया। जिसका नाम एप्पल-2 था। एप्पल-2 के आने के बाद पर्सनल कंप्यूटर की ऐरा पूरी तरह बदल गई। एप्पल-2 दुनिया का पहला ऐसा कंप्यूटर था जिसके अंदर ग्राफिक्स और की-बोर्ड का इस्तेमाल हुआ था। अपने लॉन्च होने के 3 साल के अंदर ही, एप्पल जीरो से हीरो बन चुका था।

 

पर्सनल कंप्यूटर के मार्केट में उनकी कोई टक्कर नहीं थी। लेकिन तभी मुसीबतें आना चालू हो गई। जैसे-जैसे मार्केट में कम्पटिशन बढ़ने लगा एप्पल के प्रोडक्ट को लोग कम खरीदने लगे। स्टीव जॉब का तीसरा कम्प्यूटर एप्पल 3 मार्केट में पूरी तरह फेल हो गया। उनका 50% मार्केट शेयर IBM के पास चला गया। वजह यह था कि एप्पल के कंप्यूटर काफी महंगा थे जो मध्यम वर्ग के लोग इसे खरीद नहीं पा रहे थे और आईबीएम के कंप्यूटर ज्यादा बिकते जा रहे थे। उसी समय में माइक्रोसॉफ्ट के विंडोज सॉफ्टवेयर आईबीएम के कंप्यूटर में आने लग गए और मैकिनटोश कंप्यूटर का मार्केट शेयर नीचे गिरता गया। कंपनी को नुकसान में जाता हुआ देख स्कली नाम के एक बोर्ड डायरेक्टर ने जॉब्स को सीईओ के पद से हटा दिया। जिसके बाद जॉब्स ने कंपनी से रिजाइन दे दिया। यह स्टीव जॉब के लिए, किसी सदमे से कम नहीं था। वह इसके बाद डिप्रेशन में चले गए। उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था कि जिन लोगों को उन्होंने नौकरी दी। जिन्हें बोर्ड ऑफ डॉयरेक्टर में लाकर बैठाया उन्होंने ही उनकी कंपनी से निकाल दिया।

 

स्टीव जॉब्स के साथ ही उनके कुछ कर्मचारियों ने भी कंपनी से रिजाइन दे दिया। कंपनी से रिजाइन के बाद स्टीव ने 1985 में नेक्स्ट नाम की कंपनी को स्थापित किया। इस कंपनी में कुछ ही महीनों के बाद स्टीव को पैसों की जरूरत पड़ी और रोस पेराट नाम के एक बिलेनियर ने उनकी कंपनी में बहुत ज्यादा इन्वेस्ट किया। इन्हीं दिनों नेक्स्ट कंपनी ने एक कंप्यूटर लॉन्च किया जिसे जॉब के कमबैक इवेंट के रूप में जाना गया। 1997 में नेक्स्ट कंपनी को एप्पल ने खरीद लिया। इस डील के बाद स्टीव जॉब्स को फिर से एडवाइजर के तौर पर बोर्ड ऑफ मेंमबर में शामिल कर लिये गये। कुछ ही दिनों बाद एप्पल के चेयरमैन ने स्टीव जॉब्स को दोबारा CEO बनाने की पेशकश की। इसके बाद स्टीव जॉब्स एप्पल के फुल टाइम CEO नियुक्त किये गये।

CEO बनते ही, स्टीव जॉब ने उस समय के सारे प्रोजेक्ट बंद कर दिए। उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट के साथ एक डील की। उस डील के अनुसार माइक्रोसॉफ्ट एप्पल में 150 मिलियन डॉलर इंवेस्ट किया। इसके 1 साल बाद स्टीव जॉब्स की गाइडेंस में एप्पल की एक नई सीरिज लॉन्च हुई। एप्पल के इस सीरिज के सारे प्रोडक्ट पूरी दुनिया को बदल दिया। इसके बाद उन्होंने साल 1998 में आईमैक लॉन्च किया जो एप्पल के लिए बहुत ही सक्सेसफुल प्रोडक्ट साबित हुआ। आईमैक के बदौलत एप्पल लगभग 6 बीलियन डॉलर का सिर्फ प्रॉफिट कमाई। इसके बाद 2001 में एप्पल फर्स्ट जनरेशन आईपैड लॉन्च करता हैं। जो पहला डीजिटल ऑडियो प्लेयर था। स्टीव के उस आईपैड में 1000 से भी ज्यादा गाने इनस्टॉल किए जा सकते थे। यह प्रोडक्ट भी एप्पल के लिए सुपरहिट साबित हुआ।

2003 में एप्पल ने आई ट्विन इंट्रोड्यूस कियाआई ट्विन एक ऐसा ऑनलाइन मार्केटप्लेस था जहां पर लोग म्यूजिक को खरीद सकते थे। अब तक एप्पल पूरे form में आ चुका था। उसे दुनियां की मोस्ट इनोवेटिव कंपनी का तमगा मिल चुका था। एक ओर जहां स्टीव बुलंदियों पर पहुंच रहे थे वहीं दूसरी तरफ उनका भाग्य कुछ और इशारा कर रहा था। साल 2004 में स्टीव की तबीयत अचानक खराब हो गई। मेडिकल जांच के बाद पता चला कि जॉब्स के पेनक्रियाज में ट्यूमर है। स्टीव अपने सभी एंप्लाइज को इसकी सूचना देते हैं। कि वह इसका ऑपरेशन करवाने जा रहे हैं। फिर वह एक लंबे मेडिकल लीव पर चले गये। लीव से वापस आने के बाद स्टीव जॉब्स एक बार फिर पूरी फॉर्म में थे। फिर 2007 में दुनिया का सबसे पहला फुल फ्लैश स्मार्ट फोन लॉन्च किया जिसका नाम आईफोन रखा। आईफोन इस दुनिया का सबसे पहला स्मार्टफोन था। आईफोन को लॉन्च होने के तीन साल बाद एप्पल ने दुनिया का पहला  टैबलेट कम्प्यूटर लांच किया जिसका नाम ipad रखा।

इसी दौरान स्टीव जॉब्स की तबीयत अचानक से एक बार फिर खराब हो गई। मेडिकल जांच में पता चलता है कि उनका लीवर पूरी तरह से खराब हो चुका है। उन्हें जल्द से जल्द लीवर ट्रांसप्लांट की जरूरत है। काफी जद्दोजहद के बाद स्टीव जॉब्स को एक डोनर मिल जिसके बाद उनकी सर्जरी तो हुई पर सक्सेस नहीं रहा। अपनी खराब सेहत के चलते स्टीव जॉब्स को लगा कि यह सही समय होगा कि अपनी कमान किसी और के हाथों में दे दें। उस समय कंपनी के COO टीम कॉक ने उनकी जिम्मेदारी को संभाला। 2 साल तक बीमारी से लड़ने के बाद वो इस जानलेवा बीमारी को हरा नहीं पाए जिसके चलते 5 अक्टूबर 2011 के दिन दोपहर 3:00 बजे के 56 साल की उम्र में स्टीव जॉब्स ने दुनिया को अलविदा कह दिया।

 

अपने आखिरी वक्त में जब स्टीव जॉब्स अस्पताल के बिस्तर पर पड़े थे, तब उन्होंने दुनिया को जिंदगी का असली मतलब समझाया। जॉब्स ने कहा था, इस वक्त डेथबेड पर पड़े हुए मुझे इस बात का एहसास हो रहा है कि मैंने जितना शोहरत कमाई जिसमें मुझे गर्व महसूस होता है। वो सब अब मौत के आगे किसी काम के नहीं हैं।

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इटली के महान चित्रकार और आविष्कारक लियोनार्डो दा विंची

 

14वीं शताब्दी में यूरोप पुनर्जागरण के काल से गुजर रहा था। उस दौरान यूरोप में सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षिक जैसे कई क्षेत्रों में बदलाव हो रहे थे। यूरोप के इस पुनर्जागरण को रेनेसा काल के नाम से भी जाना जाता है। यूरोपीय पृष्ठभूमि पर 14वीं-17वीं शताब्दी के बीच ऐसे कई लोगों का जन्म हुआ, जिन्होंने समाज को एक नया मोड़ दिया उन्हीं में से एक थे लिओनार्डो दा विंची। एक साधारण इंसान एक या दो चीजों में मास्टर हो सकता है, लेकिन लियोनार्डो दा विंची एक ऐसे अद्भुत व्यक्ति थे जिन्हें महान चित्रकार, अविष्कारक, मूर्तिकार, वास्तुशिल्पी, संगीतज्ञ, कुशल यांत्रिक, लेखक, इंजीनियर, भौतिक शास्त्री और वैज्ञानिक जैसे महान व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता हैं। अनेक विधाओं में माहिर होने के बावजूद इन्हें सबसे अधिक ख्याति महान कलाकार के रूप में मिली जिसकी प्रमुख वजह विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग ‘मोनालिसा’ और ‘द लास्ट सपर’ है। तो चलिए जानते हैं महान व्यक्ति लियोनार्डो द विंची से जुड़े रोचक तथ्य

 

लियोनार्डो दा विंची का जन्म 15 अप्रैल 1452 में इटली के फ्लोरेंस शहर में हुआ था। उनका पूरा नाम लियोनार्डो दी पीयरो दा विंची था। दा विंची के पिता सर पीयरो एक मशहूर वकील थे जबकी उनकी मां कैटरीना डी मेओ लिपि एक गरीब किसान की बेटी थी। लियोनार्डो अपनी माता के बजाए अपने पिता के ज्यादा करीब थे। वह अपनी मां के साथ जीवन के शुरुआती 5 सालों तक रहें इसके बाद वह अपने पिता के साथ रहने लगे। लियोनार्डो ने कभी किसी भी महिला के साथ किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं बनाया। उन्होंने कभी भी शादी नहीं की और उनके कोई बच्चे नहीं हुए। लियोनार्डो के लिखने का तरीका अपने आप में अद्भुत था। वह अपना ज्यादातर लिखने का काम दाएं से बाएं की ओर लिखकर करते थे‌। वो एक ही समय में एक हाथ से लिख सकते थे और दूसरे हाथ से चित्रकारी कर सकते थे। लियोनार्डो दा विंची बहुत आसानी से शब्द को उल्टे क्रम में लिख लेते थे, जैसा हमें शीशे में लिखा हुआ दिखाई देता हैं। वो ऐसा तब लिखते थे जब कोई सीक्रेट बात लिखनी हो। जब लियोनार्डो अपने गुरु से पेंटिंग की शिक्षा हासिल कर रहे थे तो एक बार उनके गुरु ने उनसे एक देवदूत की पेंटिंग बनाने के लिए कहा। लियोनार्डो ने वह पेंटिंग इतनी अद्भुत बनाई कि जिसके बाद उनके गुरु ने कभी भी पेंटिंग ना बनाने का फैसला किया।

 

लियोनार्डो की कई पेंटिंग्स में आपको उड़नतश्तरियों के चित्र देखने को मिलेंगे। उस वक्त लियोनार्डो को कैसे पता था कि ये मशीनें ऐसी दिखती हैं? जब उनका अविष्कार भी नहीं हुआ था। यही नहीं लियोनार्डो दा विंची ने उस समय हेलीकॉप्टर का कॉन्सेप्ट सबके सामने अपनी चित्रकारी के माध्यम से रखा था। इसके अलावा उनकी चित्रकारी में ऐसी कई मशीनें देखी जा सकती हैं, जिनका उस समय अविष्कार भी नहीं हुआ था। उनकी इन सब खोज और समय से भी आगे की चित्रकारी को देखने के बाद कई लोगों का कहना है कि हो ना हो लियोनार्डो दा विंची का संबंध किसी एलियन लाइफ से था। लियोनार्डो दा विंची पहले ऐसे इंसान थे जिन्होंने आकाश का रंग नीला होने का सही कारण बताया था। लियोनार्डो ने अस्पतालों में मौजूद मानव लाशों के जरिये शरीर की संरचना का अध्ययन किया और उनके 240 चित्र बनाए। उनके 240 चित्रों और 13000 शब्दों में लिखी मानव शरीर की संरचना पर आधारित दस्तावेजों के जरिये मानव शरीर के बारे में काफी कुछ जानकारी मिलती है। दुनिया के प्रसिद्ध अरबपति बिल गेट्स ने लियोनार्डो दा विंची की 72 पेज की सचित्र पांडुलिपि पुस्तक कोडेक्स सिलेस्टर को साल 1990 में 40 मिलियन डॉलर में खरीदा।

 

साल 1472 में 20 वर्ष की उम्र में लियोनार्डो खुद एक अच्छे आर्टिस्ट बन गये थे और उनके पिता ने उनके लिए एक वर्कशॉप भी बनवा दिया था। लियोनार्डो की पहली ड्राइंग 5 अगस्त 1473 को पेन और इंक से बनाई गई आरनो वैली की ड्राइंग है। 1478 में लियोनार्डो ने अपना स्टूडियो शुरू किया था और लियोनार्डो को 1481 में चैपल ऑफ़ सेंट बर्नार्ड और 1481 में सेन डोनाटो अ स्कोपेटो  के लिए दी एडोरेशन ऑफ़ दी मेगी पेंट करने का मौका भी मिला था। इस दौरना उन्होंने अपने उत्कृष्ट योगदान देने की कोशिश की हलांकि की बाद में चित्रकारी से उब कर दा विंची ने बीच में ही उसे अधूरा छोड़ दिया क्योंकि इस पर काम करते हुए बहुत लंबा समय बिताने के बाद उन्होंने फैसला किया कि वह इस चित्र को वो पूरी तरह नहीं बना सकते। इस अधूरी पेंटिंग ने लियोनार्डो की नई सोच को विकसित किया था।

 

लियोनार्डो ने साल 1482 में फ्लोरेंस छोड़ दिया था और कोर्ट में आर्टिस्ट के पद पर काम करना शुरू कर दिया था। डयूक ने लियोनार्डो को अपने यहां सेना मे इंजिनियर के पद पर नियुक्त किया था। बतौर सेना इंजिनियर लियोनार्डो दा विंची ने अनेक नये सुझाव दिए। जिसमे रासायनिक धुएं से लेकर अस्त्र-सस्त्र से युक्त वाहनों और शक्तिशाली हथियारों तक के प्रस्ताव थे। उन्होंने एक ऐसे हथियार का डिजाइन भी तैयार किया जो शत्रुओं पर गोलियों की बौछार कर सकता था। मिलान मे रहकर दा विंची ने भवन निर्माण का भी काम किया। इस दौरान उन्होंने अनेक सड़को, नहरों, गिरजाघरों का डिजाइन भी किये। लियोनार्डो ने काले घोड़े का एक बड़ा मॉडल बनाया था जिसे ग्रान केवलो के नाम से जाना जाता हैं। इसमें 70 टन का कांसा लगा था, ये मोन्यूमेंट कुछ वर्षों तक अधूरा रहा और 1492 में जाकर पूरा हुआ। 1499 में दूसरे इटालियन युद्ध की शुरुआत में फ्रेंच सेना ने इसे ध्वस्त कर दिया। और उसी साल फ्रांस ने ड्यूक ऑफ़ मिलान पर कब्जा कर लिया तो लियोनार्डो ने मिलान छोड़ दिया और फिर वेनिस और उसके बाद मानटुआ चले गए। सन 1495 मे इन्होने अपनी प्रसिद्ध पेंटिंग लास्ट सपर  बनानी आरम्भ की, जो सन 1497 मे पूरी हुई। सन 1499 मे लियोनार्डो दा विंची वेनिस आ गए। उस समय तुर्की के साथ युद्ध चल रहा था।

सन् 1500 में लियोनार्डो फिर एक बार फ्लोरेंस लौट आए। फ्लोरेंस लौट कर वे सेंटीसीमा एन्युंजीआटा की मोनेस्ट्री में एक संत के यहां रुके और यहां उन्होंने एक वर्कशॉप की जिसमें उन्होंने वर्जिन एंड चाइल्ड विथ सेंट एन और सेन जॉन बापटिस्ट के कार्टून बनाये। फिर 1502 में लियोनार्डो ने मिलट्री आर्किटेकट के तौर पर पॉप एलेक्जेंडर सिक्स्थ के बेटे सेजर बोर्गिया के पास काम शुरू किया और अपने पेट्रोन के साथ पूरी इटली की यात्रा की। इटली से फ्लोरेंस लौटकर 18 अक्टूबर 1503 को वो गिल्ड ऑफ़ सेंट ल्युक में शामिल हो गए जहां उन्होंने 2 साल तक द बेटल ऑफ अंघियारी को डिजाइन करते हुए बिताया।

 

1505 से लेकर 1507 तक विंची ने अपने निजी कार्य किये। इसी दौरान उन्होंने विश्व प्रसिद्द कृति बनाई जिसका नाम मोनालिसा था। कहा जाता हैं ये फ्लोरेंस के नागरिक की तीसरी पत्नी की पोट्रेट थी। इस पेंटिंग की मुस्कान काफी रहस्यमयी हैं। वैसे इस रचना के पीछे बहुत सी थ्योरी और कहानियां हैं, जिसमें कुछ का मत हैं कि उस लड़की को पीलिया था वही कुछ उसे गर्भवती मानते हैं तो कुछ का दावा था कि ये महिला ही नहीं हैं बल्कि पुरुष पर बनाई गयी कृति हैं। हालांकि मोनालिसा एक ऐसी रचना थी जिसे लियोनार्डो ने कभी खत्म नही किया था वो इसे हमेशा बेहतर बनाने की कोशीश करते रहते थे। कहा जाता हैं कि अपनी मृत्यु तक लियोनार्डो ने इस पेंटिंग को बेचा नहीं था। मोनालिसा की ये पेंटिंग पेरिस में हैं और इसे ना केवल राष्ट्रीय कृति का सम्मान मिला हैं बल्कि आर्ट के क्षेत्र में आज तक की सबसे सुंदर कृति भी माना जाता हैं।

 

साल 1506 में एक बार फिर लोयोनार्डो मिलान लौट आये लेकिन वो मिलान में ज्यादा नहीं रुके क्योंकि उनके पिता का देहांत हो गया और 1507 में अपने भाई के साथ पिता की सम्पति का मामला सुलझाने के लिए वो वापिस फ्लोरेंस आ गये। 1508 में वो वापिस मिलान लौट गये जहां उनका खुद का घर था। 1513 में लियोनार्डो रोम चले गये और वहां पर 1516 तक रहे। वहां उन्हें काफी सम्मान और ख्याति मिली लेकिन विंची इन सबसे अप्रभावित थे वो ज्यादा से ज्यादा विज्ञान में अध्ययन करते और अपने नोटबुक में आर्टिस्टिक काम करते। 1513 से 1516 तक लियोनार्डो ने अपना ज्यादातर समय रोम के वेटिकन सिटी में बेलवेडेरे में बिताया। अक्टूबर 1515 में फ्रांस के फ्रांकोइस प्रथम ने मिलान पर कब्जा कर लिया। 19 दिसम्बर को लियोनार्डो फ़्रन्कोइस प्रथम और पॉप लियो दशम की मीटिंग में बोलोगना गया। लियोनार्डो ने अपने जीवन के अंतिम 3 साल अपने मित्र काउंट फ्रेंसेसो मेल्ज़ी के साथ बिताये।

लियोनार्डो दा विंची का 2 मई 1519 फ्रांस के क्लोस ल्यूस में निधन हो गया। 'लाइफ फ्रॉम बिगिनिंग' के मुताबिक, उनके अंतिम शब्द थे, 'मैं ईश्वर और समस्त मानवजाति का गुनहगार हूं। मेरा काम गुणवत्ता के उस स्तर तक नहीं पहुंच पाया जहां उसे पहुंचना चाहिए था।

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आधुनिक स्टीम इंजन के आविष्कारक जेम्स वाट

 जेम्स वाट एक स्कॉटिक्स खोजकर्ता, मैकेनिक, इंजीनियर थे जिन्होंने भाफ इंजन की खोज कर दुनिया में क्रांति ला दी थी। जेम्स वाट की भाफ इंजन की खोज ने संसार को उर्जा और उष्मा की क्षमता से परिचय कराया। औद्योगिक क्रांति लाने में  वाट की ये महान खोज बहुत ही उपयोगी साबित हुई। जेम्स वाट का जन्म स्कॉटलैंड के ग्रीनॉक नामक स्थान पर 19 जनवरी 1736 ई को हुआ था। उनके पिता एक बढ़ई होने के साथ-साथ नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति भी थे। वाट के पिता जहाजों को सुसज्जित करने और उनके नेविगेशन उपकरणों को सुधारने का काम करते थे। जेम्स वाट रोजाना स्कूल भी नहीं जाते थे, शुरू में उनकी मां ही उन्हें घर पर पढ़ाती थी लेकिन बाद में उनके पिता ने उन्हें ग्रीनॉक ग्रामर स्कूल भेजना शुरू किया। स्कूल के दिनों से ही वाट को मैकेनिकल चीजों में ज्यादा रूचि होती थी लेकिन लैटिन और ग्रीक भाषा की पढाई करने से कतराते थे। जेम्स वाट जब 18 साल के थे तभी उनकी मां की अचानक मृत्यु हो गयी। मां की मृत्यु के बात वाट ने पिता के साथ वर्कशॉप में जाकर मशीनरी सम्बन्धी कार्यो में दिलचस्पी लेने लगे। उस वक्त वाट के पिता की माली हालात भी खराब थे। माता की अचानक मृत्यु और पिता के व्यापार में घाटे ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। उन्हें अपरेंटिस का काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। अपरेंटिस के साथ-साथ पेट भरने के लिए जेम्स वाट को कई छोटे-मोटे कार्य भी करने पड़े।

 

1754 में जेम्स वाट ने स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर गए जहां एक रिश्तेदार ने वॉट को ग्लासगो विश्वविद्यालय के मशहूर वैज्ञानिक रॉबर्ट डिक से मिलवाया। धीरे-धीरे रॉबर्ट डिक जेम्स वाट की बुनियादी कौशल से प्रभावित हो गये। प्रो. डिक ने वाट को प्रशिक्षण के लिए लंदन जाने के लिए प्रोत्साहित किया। डिक के सुझाव पर अपरेंटिसशिप करने के लिए वाट लंदन पहुंचे जहां उनकी मुलाकात जॉन मॉर्गन से हुई। प्रो. डिक के कहने पर जॉन मॉर्गन जेम्स वाट को सब कुछ सिखाने के लिए राजी हो गए, जो वे सिखना चाहते थे। इस दौरान वाट को उनके लिए मुफ्त में काम करना था। वाट सात साल का काम एक साल में पूरा करने को तैयार हो गये थे। सप्ताह के पांच दिन वे दस-दस घंटे तक काम करते रहे। वाट हर उपकरण को बनाने का गुर सिखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने हर वर्क-स्टेशन और हर वर्कमैंन के साथ काम किया। बहरहाल कुछ ही दिनों में उन्होंने दो साल से अप्रेंटिसशिप कर रहे साथियों को पीछे छोड़ दिया। नौ महीने में ही वाट पूरी तरह अपने काम में दक्ष हो चुके थे। इस दौरान एक ओर वाट जहां कड़ी मेहनत कर रहे थे वहीं दूसरी तरफ उन्हें पर्याप्त भोजन भी नहीं मिल पा रहा था। साल खत्म होते होते वाट का शरीर भी जवाब देना शुरू कर दिया जिसके बाद उन्हें रुमेटिज्म के भयानक दौरे पड़ने लगे थे। फिर बेहतर स्वास्थ्य के लिए उन्होंने लदन छोड़कर वापस ग्रीनॉक आ गये। ग्रीननॉक में रहने के दौरान उनकी हिम्मत भी बढ़ी और स्वास्थ्य भी ठीक हुआ। उसके बाद वो ग्लासगो पहुंचे जहां उनके साथ लंदन में खरीदा गया उपकरणों का ढांचा भी मौजूद था। अब वो दुनिया को अपने हाल में सीखे गए हुनर से परिचित कराने को तैयार थे।

ग्लासगो वापस आने के बाद भी वाट की परेशानियां कम होने का नाम नहीं ले रही थी। वाट चाह रहे थे वो खुद का वर्कशॉप शुरू करें लेकिन उन दिनों ग्लासगो शहर में बिना अनुमति के कोई अपना कारोबार नहीं कर सकता था। इसी दौरान वाट को एक जबरदस्त मौका मिला जो वाट की जीवन को हमेशा हमेशा के लिए बदल डाला। दरअसल ग्लासगो विश्वविद्यालय में एक खगोलीय उपकरण खराब हो गया था जिसे ठीक करने के लिए कुशल मैकेनिक की जरूरत थी। और यह कार्य वाट के जानकार डॉ डिक के पास ही था। डॉ डिक ने वाट को उपकरण ठीक करने के लिए बोला। जिसके बाद वाट अपने कौशल को साबित करते हुए उपकरण को उसी दिन सही कर दिया। इसके एवज में युनिवर्सिटी ने उन्हें पांच पाउंड दिया। इतना ही नहीं वाट के कार्य से खुश होकर यूनिवर्सिटी प्रशासन ने उन्हें कॉलेज कंपाउंड के भीतर ही एक कमरा दे दिया जो वाट की जिंदगी का एक अहम मोड़ साबित हुआ।

बहरहाल यूनिवर्सिटी में मैथेमिटिकल इंस्ट्रूमेंट मेकर के तौर पर 1757 में वाट को दाखिला मिल गया। यूनिवर्सिटी में जेम्स वाट के कई अच्छे मित्र भी बने। उन मित्रों में जोसेफ ब्लैक और जॉन रॉबिसन ने वाट को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। इस बीच वाट का करोबार भी बढ़ने लगा था। जब यूनिवर्सिटी ने उन्हें रहने के लिए मकान दिया था तो शर्तों में यह नहीं था कि उन्हें सिर्फ उनके लिए ही काम करने होगा। इसके उलट उन्हें ठीक गली के सामने एक कमरा दिया गया, जहां वे अपने वर्कशॉप में तैयार उपकरणों को लोगों को बेच सकते थे। इसी दौरान कारोबार को बढ़ाने के लिए वाट ने 1759 में मिस्टर क्रेग के साथ साझेदारी की। क्रेग की साझेदारी ने वाट को बड़ी सफलता दिलाई। कुछ ही दिनों बाद दोनों की सालाना बिक्री बढ़ कर 600 पौंड की हो गई। धीरे-धीरे पूरे ग्लासगो शहर में वाट की पहचान एक ब्रांड के तौर पर होने लगी।

वाट को बचपन से हमेशा वाष्प की क्षमता जानने की उत्सुकता रहती थी। वह अक्सर वाष्प के ऊपर प्रयोग करता रहता था लेकिन कोई बड़ी कामयाबी अब तक नहीं मिली थी। साल 1764 कि बात है न्यूकोमेन जो कि वाष्प के इंजन के पहले अविष्कारक थे उन्होंने वाट को अपने इंजन का नमूना मरम्मत करने के लिए दिया। उस इंजन की मरम्मत करते समय वाट के दिमाग यह बात आई कि इस इंजन में वाष्प आवश्यकता से अधिक खर्च होती है। उसने यह भी विचार किया कि वाष्प की इस बर्बादी का कारण इंजन के बॉयलर का अपेक्षाकृत छोटा होना है। अब जेम्स वाट ऐसे इंजन के निर्माण में लग गया जिसमे वाष्प कि खपत कम से कम हो और वाष्प बर्बाद न हो। वाष्प इंजन के इस समाधान के लिए वह 1 साल तक जूझता रहा। और आखिरकार 1765 में इस समस्या का समाधान उसके हाथ में लग गया। इस समस्या का हल था कि एक अलग कंडेसर का निर्माण करना। वाट ने विचार किया कि बॉयलर से एक अलग कंडेसर हो और उसको बॉयलर के साथ भी जुड़ा होना चाहिए। इस तरह न्यूकेमोन के वाष्प इंजन में सुधार करके नए वाष्प इंजन का निर्माण जेम्स वाट का प्रथम और महानतम आविष्कार था।

भाप में कैसी ताकत होती है और उस ताकत को दूसरी चीज़ों को चलाने और घुमाने में कैसे लगाया जाए इसके बारे में जेम्स वाट कई दिनों तक सोचता रहा। चाय की केतली की नली के आगे तरह-तरह की चरखियां बनाकर उसने उन्हें घुमाया और थोड़ा बड़ा होने पर उनसे छोटे-छोटे यंत्र भी चलाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे        कठोर परिश्रम और लगन के बाद जेम्स वाट ने अपना पहला स्टीम इंजन बना लिया।

साल 1782 में वाट ने दोहरा कार्य करने वाले इंजन का आविष्कार किया। इस इंजन का पिस्टन दोनों कार्य करता था- आगे की और धकेलता था और पीछें की और खींचता था। उस इंजन से काम लेने के लिए यह आवश्यक था कि पिस्टन को बीम के साथ जोड़ा जाए ताकि बीम हिल न सके। फिर वाट को गुप्त ताप की खोज की घटना के बाद भाप सम्बन्धी शक्ति पर गया। उन्हीं दिनों विश्वविद्यालय में एक धीरे-धीरे काम करने वाला अधिक ईधन खपत करने वाला एक इंजन मरम्मत के लिए आया। जेम्स ने इसे सुधारने का बीड़ा उठाया और उन्होंने उसमें लगे भाप के इंजन में एक कण्डेन्सर लगा दिया, जो शून्य दबाव वाला था, जिसके कारण पिस्टन सिलेण्डर के ऊपर नीचे जाने लगा। पानी डालने की जरूरत उसमें नहीं थी। शून्य की स्थिति बनाये रखने के लिए जेम्स ने उसमें एक वायु पम्प लगाकर पिस्टन की पैकिंग मजबूत बना दी। घर्षण रोकने के लिए तेल डाला और एक स्टीम टाइट बॉक्स लगाया, जिससे ऊर्जा की क्षति रुक गयी। इस तरह वाष्प इंजन का निर्माण करने वाले जेम्स वाट पहले आविष्कारक बने।

दुनिया में औद्योगिक क्रांति लाने वाले जेम्स वाट ने बचपन में ही भाप की शक्ति को भांप लिया था और अपनी इसी विश्लेषण शक्ति के बल पर वह आगे चलकर भाप का इंजन बनाने में सफल हुए। जेम्स वाट के अविष्कार से जहां रेल इंजन बनाने में सफलता मिली वहीं इससे पूरी दुनिया में औद्योगिक क्रांति आ गई। जेम्स वाट की कार्य कुशलता के चलते साल 1800 में ग्लास्को विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर और लौज की मानद उपाधि से सम्मानित किया। साल 1814 में विज्ञान अकादमी द्वारा जेम्स वाट को सम्मानित किया गया। वृद्धावस्था में उन्हें राजनीतिक विरोधो के साथ-साथ पारिवारिक दुखों का भी सामना करना पड़ा। और अंतत: 25 अगस्त 1819 को 83 साल की उम्र में दुनिया को महान खोज देने वाले इस अविष्कारक का निधन हो गया।

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आर्किमिडीज के शोध एवं आविष्कार से जुड़ी रोचक कहानी

 

अक्सर छोटी-छोटी चीज़ें, छोटे-छोटे आइडिया जीवन में बहुत महत्व रखता है। इतिहास गवाह है कई बार छोटी सी सोच ने दुनिया को बदल दिया। दुनिया में एक से बढ़ कर एक वैज्ञानिकों ने जन्म लिया। आज हम एक ऐसे ही वैज्ञानिक के बारे में बात करने जा रहे हैं जिन्होंने गणित और विज्ञान की दुनिया में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कई महत्वपूर्ण नियम बनाये जिसे हम specific gravity के नाम से जानते है। जी हां हम उस शख्सियत की बात कर रहे हैं जिसका नाम इतिहास के पन्नों में दिग्गज वैज्ञानिकों कि सूची में गिना जाता है। विशिष्ट गुरुता का सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले महानतम वैज्ञानिक आर्किमिडीज आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके थ्योरी आज भी जीवित और शाश्वत है।

आर्किमिडीज एक उत्कृष्ट प्राचीन यूनानी गणितज्ञ, भौतिक विज्ञानी और खगोलशास्त्री थे। इसिलिए उन्हें अपने समय के सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों में गिनती की जाती है। आर्कमिडीज ने गणित और भौतिकी विज्ञान में विशेष रूप से कार्य किया। अपने जीवन काल में कई अविश्वसनीय आविष्कार किए। उन्होंने स्क्रू पंप, कंपाउंड पुली जैसे मशीनों का डिजाइन किया। आर्कमिडीज ने ही सबसे पहले पता लगाया था की को कोई वस्तु पानी के सतह पर क्यों तैरती है और क्यों डूब जाती है। इसी तथ्य को सुलझाने के लिए उन्होंने जो सिद्धांत दिया वह आर्कमिडीज के सिद्धांत के रूप में प्रसिद्ध हुआ। आर्किमिडीज ने वस्तुओं के तैरने का सिद्धांत भी डिस्कवर किया। मैकेनिक्स मे उन्होंने लिवर का सिद्धांत भी दिया। लिवर और घिरनियों द्वारा वह पानी में डुबे जहाज को अकेले ही किनारे उठा लाये। इतना ही नहीं आर्किमिडिज ने गणित के क्षेत्र मे पाई का मान भी कैलकुलेशन किया था। साथ ही वृत्त की परिधि और क्षेत्रफल निकलने के सूत्र दिए थे। आर्किमिडिज़ ने युद्ध मे काम आने वाली मशीनो का भी अविष्कार किया। उन्होंने आइने को प्रयोग मे लाकर प्रकाश का अध्ययन किया। कहा जाता है की रोम के खिलाफ होने वाले युद्ध मे उन्होंने ऐसे विशाल आइने का प्रयोग किया था जिसके द्वारा उन्होंने सूर्य के प्रकाश को रिफ्लेक्ट करके दुश्मनों के कई जहाजों में आग लगा दी थी।

आर्कमिडीज के सिद्धांत ने किसी वस्तु का जल में डूबने, तैरने और जल के सतह पर चलने का कारण बताता है। आर्कमिडीज के दिमाग में एक बात आई की कोई बस्तु पानी में डूब क्यों जाती है। फिर कुछ बस्तु पानी में नहीं डूबती। बल्कि वह पानी की सतह पर क्यों तैरती है। तभी उन्होंने इसके कारण जानने की कोशिश करने लगे। अपने गहन अनुसंधान के बाद आर्कमिडीज ने इसके कारण का पता लगाने में सफलता हासिल की। उनका यह तैरने का सिद्धांत ही आर्कमिडीज का सिद्धांत कहलाया। जब कोई वस्तु किसी द्रव में पूरी तरह अथवा आंशिक रूप से डुबाई जाती है, तो उसके भार में कमी का आभास होता है। भार में यह आभासी कमी वस्तु द्वारा विस्थापित किये गए द्रव्य के भार के समान होती है। आर्कमिडीज गणित और ज्यामिति के भी अच्छे जानकार थे। तभी तो उन्होंने विज्ञान के अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किए थे।

आर्किमिडीज की कहानी आज से करीब 2000 साल पहले की है जब राजा हीएरो द्वितीय ने एक सुनार को कुछ सोना दिया और एक सुंदर सोने का मुकुट बनाने के लिए कहा। जब मुकुट बनकर तैयार हुआ तो राजा को उसकी शुद्धता पर सन्देह हुआ। हांलाकि सुनार ने मुकुट बहुत सुंदर बनया था इसलिए राजा उसे तोड़े बिना ही उसकी शुद्धता की परख करना चाहते थे। उन दिनों ऐसा कोई उपाय किसी को पता नहीं था कि बिना मुकुट को तोड़े ही उसकी शुद्धता परखी जा सके। आखिरकार राजा ने अपने राज्य के वैज्ञानिक आर्किमिडीज को बुलवा कर अपनी समस्या का समाधान बताने को कहा। उस वक्त आर्किमिडीज के पास कोई समाधान नहीं था फिर भी राजा के आदेश को स्वीकर कर थोड़े दिन का वक्त ले लिया। आर्किमीडीस ने इस पर काफ़ी सोच विचार किया, लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था। एक दिन वह पानी से भरे टब में नहा रहे थे, तभी अचानक उन्होनें देखा कि जैसे ही वो पानी के टब में घुसे बहुत सारा पानी टब से बाहर निकल गया। तभी अचानक उनके दिमाग ने काम किया और राजा की समस्या का हल निकाल लिया। वो अपनी इस नयी खोज से इतना एक्साइटेड हुए कि वह टब से बाहर निकले और यूरेका… यूरेका चिल्लाने लगे। उनकी समझ में आ गई कि किसी चीज को पानी में डुबोते हैं तो वह अपने आयतन के बराबर पानी को हटाती है। अब उन्होंने राजा से पानी से भरा टब लाने को कहा। आर्किमिडीज ने मुकुट को पानी के टब में डुबोया। मुकुट के अंदर जाते ही कुछ पानी टब के बाहर गिरा। बाहर गिरे पानी को सावधानी पूर्वक नापा गया। अब उतना ही सोना डुबोया गया और फिर उससे बाहर गिरे पानी को नापा गया। सोने से पानी ज्यादा बाहर गिरा, जबकि मुकुट से कम पानी गिरा। आर्किमिडीज ने कहा, ‘सोने और मुकुट का वजन बराबर है। अगर मुकुट शुद्ध सोने का होता, तो एकदम बराबर पानी गिरता। इससे सिद्ध होता है कि सुनार ने धोखा दिया। बाद में यही सिद्धांत आर्किमिडीज थ्योरी के रूप में दुनिया भर में विख्यात हुआ। आज भी बगैर इस थ्योरी को प्रूव किए रेखागणित की पढ़ाई पूरी नहीं मानी जाती।

आर्किमिडीज का जन्म 287 ईसा पूर्व सिरेक्यूज में हुआ था। वे एक महान वैज्ञानिक और विचारक के साथ-साथ एक महान गणितज्ञ भी कहलाते थे। अपने काम की बदौलत उन्होंने जो ख्याति मिली उसकी चमक आज तक फीकी नहीं पड़ी है। विज्ञान और गणित के इतिहासकार आर्किमिडीज़ को कई सारी वैज्ञानिक खोजों का श्रेय देते हैं। जैसे कि वृत का क्षेत्रफल और पाई का मान ज्ञात करना। उन्होंने पाई का मान, उस समय तक किए गए सभी प्रयासों से अधिक सटीकता से ज्ञात किया था। वे डिफ्रेंशियल केल्क्युलस विकसित करने के काफी करीब पहुंच चुके थे। और उन्होंने लगभग उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल किया जो आज इंटिगरल केल्क्युलस में अपनाए जाते हैं। यानी पैराबोला और दीर्घवृतों जैसी ज्यामितीय आकृतियों का क्षेत्रफल ज्ञात करने के लिए आर्किमिडीज़ उन्हें छोटे-छोटे अनंत आयतों में बांटकर, उन आयतों के क्षेत्रफल का योग कर लेते थे। सर्किल की सतह का क्षेत्रफल और उसका आयतन ज्ञात करना। इस समस्या के उनके हैरतअंगेज़ हल का विवरण उनकी पुस्तक ‘ऑन द स्फीयर एण्ड द सिलेंडर' में मिलता है।

कहा जाता है की रोम के द्वारा यूनान को अपने कब्जे में लेने के बाद आर्किमिडीज बहुत दुखी हुए। एक दिन वे बालू के टीले पर बैठकर कुछ सोच रहे थे। तभी रोम के एक सिपाही उनके पास आया और अपने साथ ले जाने लगे। लेकिन आर्कमिडीज ने जाने से मना कर दिया। जिसके बाद रोम के सिपाही ने उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार महान वैज्ञानिक आर्कमिडीज का निधन ईसा पूर्व 212 ईस्वी में हो गई।

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