वो शख्सियत जिन्होंने दुनिया के मजदूरों को एक
मंच पर इकट्ठे होने का नारा दिया। उसने ताउम्र मजदूर और कामकाज करने वाले लोगों के
लिए अपनी आवाज बुलंद करते रहे। उसने कभी कोई श्रम आधारित नौकरी नहीं की फिर भी मजदूरों
की मजबूरियों पर मरहम लगाना भली-भांति जानते थे। दुनिया भर में कामगारों की स्थिति
को दोखते हुए उन्होंने कहा था कि दुनिया के मजदूरों के पास अपनी जंजीर के अलावा
खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उनके क्रांतिकारी और कट्टर लेखों के कारण ही उन्हें
जर्मनी, बेल्जियम और फ्रांस से भगा दिया गया था। उनके विचारों का असर इतना गहरा था
कि दुनिया की व्यवस्थाएं बदल दी। जी हां हम बात कर रहे हैं सहस्त्राब्दी के सबसे
महान चिंतक कार्ल मार्क्स की। अगर विश्व इतिहास में झांक कर किसी ऐसे
दार्शनिक-चिंतक की तलाश करें, जिनके विचारों ने दुनिया पर
सबसे ज्यादा असर डाला है, तो उनमें कार्ल मार्क्स का नाम सबसे उपर आता है। कार्ल
मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री, पत्रकार और सोशल
इंजीनियरिंग के प्रणेता थे। आज भी उनके विचार देश की सत्ता में महिलाओं और
सर्वहारा वर्ग की हिस्सेदारी, पिछड़ों के अधिकारों का सम्मान करने
और साथ लेकर चलने पर बल देते हैं। मार्क्स महिलाओं के अधिकारों को महत्त्वपूर्ण
मानते थे। उनका कहना था कि कोई भी व्यक्ति जो इतिहास की थोड़ी भी जानकारी रखता है, वह यह जानता है
कि महान सामाजिक बदलाव बिना महिलाओं का उत्थान किये असंभव है। मार्क्स का मानना था
कि महिलाओं की सामाजिक स्थिति को देखकर किसी समाज की सामाजिक प्रगति मापी जा सकती
है। मार्क्स ने विश्व को संघर्ष करने की प्रेरणा दी। मार्क्स ने एक ऐसे समतामूलक
समाज की संकल्पना की जिसमें स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब, काले-गोरे जैसे
बिना मतभेद के समानता स्थापित हो सके। कार्ल मार्क्स ने मानवता को धर्म के ऊपर रखा
तभी तो उसने धर्म की आलोचना करते हुए उसे अफीम की संज्ञा दी थी। मार्क्स चाहते थे
कि हमारी ज़िंदगी पर हमारा खुद का अधिकार हो, हमारा जीना सबसे ऊपर हो।
कार्ल मार्क्स का जन्म एक यहूदी परिवार में
प्रशिया के राइन प्रांत के ट्रियर नगर में 5 मई, 1818 को हुआ था। मार्क्स के पिता एक
वकील थे और उनकी प्रारंभिक शिक्षा ट्रियर शहर के एक स्थानीय स्कूल जिमनेजियम में
पूरी हुई। 17 वर्ष की आयु में उन्होंने कानून की पढ़ाई के लिए बॉन विश्वविद्यालय
में एडमिशन लिया। इसके बाद मार्क्स ने बर्लिन और जेना विश्वविद्यालयों में साहित्य, इतिहास और
दर्शन की पढ़ाई की। पढ़ाई में बहुत आगे रहने वाले मार्क्स ने साल 1839-41 में
दिमॉक्रितस और एपीक्यूरस के प्राकृतिक दर्शन पर अपना रिसर्च लिखा और पीएचडी पूरी
की। ट्रायर में 1836 की गर्मी की छुट्टी बिताते हुए, मार्क्स अपनी पढ़ाई और अपने जीवन के बारे में अधिक
गंभीर हो गए। फिर अक्टूबर 1836 में कार्ल मार्क्स बर्लिन पहुंचे जहां विश्वविद्यालय
के लॉ फैकल्टी में मैट्रिकुलेटिंग और मित्तलस्ट्रॉस में एक कमरा किराए पर लिया। 1837
तक, मार्क्स उपन्यास और फिक्शन दोनों तरह की रचनाएं लिखने
लगे थे। मई 1838 में मार्क्स के पिता की अचानक मृत्यु हो गई, जिसके बाद परिवार को घोर आर्थिक परेशानियों का समना करना पड़ा। मार्क्स
भावनात्मक रूप से अपने पिता के बहुता करीब थे इसलिए पिता के मृत्यु के बाद वो काफी
परेशान रहने लगे। इन्हीं दिनों मार्क्स एक अकादमिक करियर पर विचार कर रहे थे,
लेकिन सरकार के उदारवाद और यंग हेगेलियन के बढ़ते विरोध के कारण मार्क्स
का सपना अधूरा ही रह गया। फिर मार्कस साल 1842 में कोलोन चले गए, जहां वो पत्रकार बन गए। और फिर समाजवाद पर अपने विचारों और अर्थशास्त्र
में अपनी विकासशील रुचि को व्यक्त करते हुए कट्टरपंथी समाचार पत्र राइनिशे ज़ितुंग
के लिए लिखने लगे। इससे पहले मार्क्स ने मार्च 1841 में आर्चीव डेस नास्तिकस नाम
से एक पत्रिका के लिए काम कर रहे थे हलांकि वो पत्रिका किसी कारण बस प्रकाशित नहीं
हुई।
साल 1843 में कार्ल मार्क्स ने कट्टर वामपंथी
पेरिस के अखबार, फ्रेंच फ्रांस्सिके जहरबुचर के सह-संपादक बन गए और पेरिस में ही रहने लगे।
पेरिस में रहते हुए एर्नोल्ड र्युज के साथ मार्क्स ने जर्मन-फ्रैंच वार्षिक जर्नल
शुरु किया, जिसने पेरिस की राजनीति में अपनी मुख्य भूमिका
निभाई, हालांकि एर्नोल्ड और मार्क्स के बीच आपसी मतभेद के
चलते यह जर्नल ज्यादा दिन तक नहीं चल सका। इसके बाद मार्क्स ने 1844 में अपने
दोस्त फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर युवा हैगीलियन ब्रूनो ब्युर के दार्शनिक
सिद्धांतों का क्रिटिसिज्म का काम करना शुरु कर दिया और फिर इसके बाद एक साथ दोनों
ने “होली फॉमिली” नाम के पब्लिकेशन
शुरु किया। इसके बाद मार्क्स बेलिज्यम के ब्रुसेल चले गए और यहां वे वोर्टवार्ट्स
नाम के न्यूजपेपर के लिए काम करने लगे, यह पेपर बाद में
कम्यूनिस्ट लीग बनकर उभरा।
धीरे-धीरे कार्ल मार्क्स पत्रकारिता में अपनी
जड़े जमा चुके थे और समाजवाद के लिए काम करना शुरू कर दिया था। कार्ल मार्क्स ने
ब्रुसेल में हैगीलियन के साथ काम किया क्योंकि वे दोनों एक ही विचारधारा के थे। इस
दौरान उन्होंने डाई ड्युटश्चे आइडियोलोजी लिखी, जिसमें उन्होंने समाज के ऐतिहासिक ढांचे के बारे में
वर्णन किया और यह बताया कि किस तरह आर्थिक रुप से सक्षम वर्ग मजदूर और गरीब बर्ग
को नीचा दिखाता आया है। पत्रकारिता के माध्यम से कार्ल मार्क्स ने मजदूर वर्ग के
नेताओं के आंदोलन के साथ दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की। और फिर 1846 में उन्होंने
कम्यूनिस्ट कोरेसपोंडेंस कमेटी की नींव रखी। इसके बाद इंग्लैंड के समाजवादियों ने
उनसे प्रेरित होकर कम्यूनिस्ट लीग बनाई और इस दौरान एक संस्था ने मार्क्स और एंगलस
से कम्युनिस्ट पार्टी के लिए मेनिफेस्टो लिखने का कहा। मार्क्स मेनिफेस्टो लिखने
के लिए राजी हो गये और कुछ दिनों बाद 1848 में कम्युनिस्ट पार्टी का मेनिफेस्टो
जारी हुआ। कम्युनिस्ट घोषणापत्र मार्क्स की अमर रचना है। जो कि लंदन से फरवरी 1848
में प्रकाशित हुई यह वैज्ञानिक कम्युनिज्म का कार्यक्रम संबंधी दस्तावेज है। इसमें
ही सबसे पहली बार सर्वहारा के क्रांतिकारी सिद्धांतों की यह संक्षिप्त और सरल
व्याख्या की गई थी।
इसके बाद 1849 में कार्ल्स मार्क्स को बेल्जियम
से निकाल दिया गया, जिसके बाद वे फ्रांस चले गए और वहां उन्होंने समाजवाद की क्रांति शुरू कर
दी, लेकिन वहां से भी उन्हें बाहर निकाल दिया गया, जिसके बाद
वे फिर लंदन आ गए। लेकिन यहां पर भी उनके संघर्ष खत्म नहीं हुए उन्हें ब्रिटेन ने
नागरिकता देने से मना कर दिया। इन्हीं दिनो जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया में क्रांति शुरू
हो गई। और मार्क्स राइनलैंड वापस लौट गए। मार्क्स ने कोलोन में डेमोक्रेटक
बोर्जियोसी और वर्किंग क्लास के बीच गठबंधन की नीति की सराहना की और कम्यूनिस्ट के
मेनिफेस्टो को नष्ट करने एवं कम्यूनिस्ट लीग को खत्म करने के फैसले को समर्थन किया।
इसके बाद उन्होंने एक न्यूज पेपर के माध्यम से अपनी नीति समझाने की कोशिश करते रहे।
मार्क्स धीरे धीरे पत्रकारिता ध्यान हटाते हए कैपिटिलज्म और इकनॉमिक की थ्योरी में
अपना ध्यान केन्द्रित करने लगे। उधर 1849 के अंत तक कम्युनिस्ट लीग में वैचारिक
दरार के कारण पूरे यूरोप में व्यापक विद्रोह होने लगे थे। विद्रोह को देखते हुए
एंगेल्स और मार्क्स को डर हुआ कि यह पार्टी के लिए कहीं ना कहीं नुकसानदेह होगा।
मार्क्स जल्द ही समाजवादी जर्मन वर्कर्स एजुकेशनल सोसाइटी के साथ शामिल हो गए
लेकिन गिल्ड के सदस्यों के साथ पतन के बाद उन्होंने 17 सितंबर, 1850 को इस्तीफा दे दिया। मार्क्स ने क्रांतिकारी श्रमिक वर्ग को फिर से
संगठित करने के तौर पर काम करने लगे। 1863 में मार्क्स ने न्यूयॉर्क ट्रिब्यून को
छोड़ दिया और 'लुई नेपोलियन के अठारहवें ब्रुमायर' लिखा और फिर 1864 में, वह ‘इंटरनेशनल वर्कर्समैन
एसोसिएशन’ में शामिल हो गए।
साल 1866 में मार्क्स ने अपने अर्थशास्त्रीय अध्ययन के निष्कर्ष पर नए सिरे से लिखना आंरभ किया और उसका प्रथम भाग 1867 में 'दास कैपिटल' के नाम से प्रकाशित किया। दास कैपिटल एक ऐसी पुस्तक है जिसकी रचना में कार्ल मार्क्स ने पूंजी और पूंजीवाद का विश्लेषण के साथ-साथ मजदूरवर्ग को शोषण से मुक्त करने के उपाय बताये गए हैं। मार्क्स लिखते हैं कि मनुष्य की चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितियों की। लेकिन न्यूटन के गति के नियम के अनुसार बिना बाह्य बल के कोई चीज हिलती भी नहीं है। अत; भौतिक परिस्थितियां अपने आप नहीं बल्कि मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलती है। मार्क्स ने कहा कि विचार से वस्तु की उत्पत्ति नहीं हुई है, बल्कि वस्तु से विचार की उत्पत्ति हुई है। जैसे न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत जहां सेब का गिरना पहले से मौजूद था। इसी प्रकार ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया है, बल्कि मनुष्य ने ईश्वर की अवधारणा को गढ़ा है। 'दास कैपिटल' के प्रकाशित होने के कुछ ही वर्षों के बाद रूस में साम्यवादी क्रांति हुई।
अपने जीवन के अंतिम दशक में मार्क्स की सेहत
बिगड़ने लगी थी और उनकी रचनात्मक ऊर्जा कम होने लगी। वह अपने परिवार की ओर मुड़
गया और यह माना जाता है कि वह अपने राजनीतिक विचारों को लेकर जिद्दी हो गया। 1881
में ज़ार अलेक्जेंडर द्वितीय की हत्या के बाद मार्क्स ने रूसी कट्टरपंथियों के
निस्वार्थ साहस की सराहना की जिन्होंने सरकार को उखाड़ फेंकने का लक्ष्य रखा। राजनीति
से हटने के बाद भी उन्होंने मजदूर वर्ग के समाजवादी आंदोलनों पर काफी प्रभाव बनाए
रखा। कार्ल मार्क्स के जीवन के आखिरी दिनों में उन्हें गंभीर बीमारियों ने घेर
लिया था। वहीं 1881 में पत्नी की मौत के बात वे काफी उदास रहने लगे थे इसी
उदासीनता के चलते उनकी बीमारी भी रिकवर नहीं हो सकी, जिसके चलते 14 मार्च, 1883 में
लंदन में उनकी मृत्यु हो गई। लदंन स्तित कार्ल मार्क्स की कब्र हाईगेट सेमेट्री में
है। कब्र के ऊपर मार्क्स की प्रतिमा लगी है और नीचे लिखा है, "दुनिया
भर के मजदूरों एक हो जाओ"। वैसे तो मार्क्स की क्रांतिकारी राजनीति की विरासत
मुश्किलों भरी रही है। लेकिन समाज में एक मजबूत सोशल इंजीनियरिंग उनकी विचारों से
ही प्रेरित मानी जाती है।
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