भारत की पावन पुण्य भूमि पर प्राचीन काल से अनेको
महायोगी, साधक, तपस्वी, वीर योद्धा, सम्राट और समाज सुधारक अवतरित हुए हैं। जिन्होंने अपने आदर्श जीवन चरित्र
और जप-तप से संपूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया और मानव को महामानव बनाने के लिए
प्रेरित किया। ऐसे ही विलक्षण और महान आत्मा थे भगवान महाविर। भगवान महावीर का जन्म
लगभग 2600 साल पहले वैशाली के गणतंत्र राज्य कुंडलपुर के कृष्णा ग्राम में हुआ था।
उनके पिता राजा सिद्धार्थ और माता रानी त्रिशला थी। सिद्धार्थ इक्ष्वाकु वंशीय कश्यप
गोत्र के क्षत्रिय थे। माता त्रिशला वैशाली नरेश चेतक की पुत्री थी। बालक की जन्म के
11वें दिन उसका नामकरण संस्कार किया जाना था। उनके जन्म पर कुंडलपुर में उत्साह और
उल्लास का वातावरण था। घर-घर में दीप प्रज्वलित हो रही थी। कुंडलपुर में प्रत्येक नागरिक
को भोजन दिया जा रहा था। बंदियों को कारागृह से मुक्त किया जा रहा था। प्रजा ने राजपुत्र
के लिए सुख समृद्धि का कामना कर रहे थे। बालक का नाम वर्धमान रखा गया। जब वर्धमान धीरे-धीरे
बड़ा होने लगे घुटनों के बल चलना शुरू किया तब से ही उनकी मीठी बोली सभी को लुभाने
लगी थी। वर्धमान आकर्षक होने के साथ-साथ बुद्धिमान भी थे। उनकी शिक्षा गुरुकुल में
पूरी हुई थी। दिगंबर परंपरा के मुताबिक वे बाल ब्रह्मचारी थे। वर्धमान बचपन से ही
बलवान और साहसी थे। उनके साहस और निडरता की चर्चा धीरे-धीरे पूरे राज्य में होने
लगी। वर्धमान की निर्भीकता और साहस को देखते हुए उन्हें महावीर और वीर बुलाया जाने
लगा। महावीर क्षत्रिय योद्धाओं के बीच पले-बड़े हुए। क्षत्रियों की भांति उन्हें भी
शास्त्र विद्या सिखायी गई। उन्हें कला और संगीत का भी पूर्ण ज्ञान था। यही वर्धमान
आगे चलकर जैन धर्म के 24 वें और अंतिम तीर्थकार बने।
भगवान महावीर महान धर्म संस्थापक ही नहीं, बल्कि महान लोकनायक, धर्मनायक, समाज सुधारक, सहिष्णुता के प्रतीक
थे। महावीर हमेशा चिंतन और मनन में डूबे रहते थे कि सांसारिक दुखों का कारण क्या है
और उन्हें किस प्रकार दूर किया जा सकता है। अंतत: वे सांसारिक जीवन छोड़कर
साधु जीवन की ओर अग्रसर हुए। शाही वैभव का आकर्षण, माता की ममता, पिता का प्यार, स्त्री का अनुराग
और पुत्री का मोह भी उन्हें अपने मार्ग से विचलित न कर सका।
महावीर ने 30 वर्षों की आयु अपने माता पिता को
यह कह कर घर छोड़ दिया कि यह संसार मोहमाया का जाल है। धरती पर जितने भी जीव और
वस्तु है वो पानी के बुलबुले समान है। मैं आध्यात्मिक आनंद की खोज में जा रहा हूं।
आप मुझे आशीर्वाद दीजिए। परमसुख और शाश्वत आनंद की प्रति राजमहल का त्याग करने
वाले वर्धमान महावीर ने जैन धर्म की दीक्षा धारण कर ली जिसके पश्चात 12 वर्षों तक उन्होंने
अनंत की खोज में निर्जन वनों में कठोर तप किया और राग द्वेष रूपी विकारों पर विजय
पाई। महावीर ने पहले 3 दिन तक उपवास किया इस दौरान उन्होंने जल भी ग्रहण नहीं किया।
वो इस संसार से बहुत दूर सन्यस्त की गंगा में उतर चुके थे। उनका कोई गुरु या शिक्षक
नहीं था। तीर्थकर पार्श्वनाथ की शिक्षा ने ही उनका मार्गदर्शन किया था। 42 वर्ष की
आयु में कैवल्य प्राप्त कर महावीर अर्हत कहलाए।
कैवल्य की प्राप्ति के बाद 30 वर्षों तक महावीर कुरु,
कश्मीर, कौशल, मगध, मिथिला, गांधार, जैसे राज्यों में विचरण कर प्रवचन करते रहे। उनकी
धर्मसभा समवशरण कहलाती थी। उनकी सभाओं में
किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। उनका ध्यान पूर्णत: आत्मा की ओर केंद्रित था। उन्होंने अपने शरीर की और कभी
भी ध्यान नहीं दिया और ना ही उसकी सुरक्षा का परवाह किया। किसी भी स्थान पर वे अधिक
समय नहीं ठहरे। उनके पास अपना कहने योग्य कुछ भी नहीं था। जीव जंतुओं, कीड़े-मकोड़ों
ने उन्हें काटा-डसा। कुछ लोगों ने उनकी खिल्ली उड़ाई, निंदा की, अभद्र टिप्पणी की और
दुष्ट लोगों ने उन पर पत्थर भी फेंके। परंतु महावीर ने ना किसी का विरोध किया और ना
ही किसी पर क्रोधित हुए। उन्होंने सबको क्षमा किया। उनमें असीमित सहनशीलता थी। धीरे-धीरे
उन्होंने मौन धारण कर लिया। आत्मा की खोज में वे सब कुछ बिसार कर बहुत आगे अनंत की
ओर निकल गए। कुछ लोगों ने उनसे वार्तालाप करने का प्रयत्न किया। किंतु अविचल महावीर
ने अपना मौन नहीं तोड़ा।अपने
प्रवचन में भगवान महावीर ने
बताया है कि मनुष्य ही अपने कर्मों का निर्माता है। वह स्वयं ही उन्हें भोगता है और
स्वयं ही उनसे मुक्ति पा सकता है। कर्मों से मुक्ति के लिए कोई भी सहयोगी नहीं बन सकता।
माता-पिता, पुत्र, पत्नी सभी को अपने-अपने कर्मों को भोगना पड़ता है। अत: उनका उपदेश था कि
मन, वचन और काया से किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए। न ही हिंसा
करनी चाहिए। यदि मनुष्य की भावना शुद्ध है तो वह पश्चाताप कर कर्मबन्धन के जाल से मुक्ति
पा सकता है।
भगवान महावीर का सिद्धांत ‘जिओ और जीने दो’ आज भी इतना ही सटीक
है, जितना कि उस समय था। उनके आदर्शों के मुताबिक मात्र मनोरंजन के लिए आकाश
में स्वतंत्र उडऩे वाले पक्षियों और वन में स्वतंत्र विहार करने वाले पशुओं
को पिंजरे में बंद रखना भी हिंसा का एक रूप है। चोरी करना, चोरी करने वालों
को प्रोत्साहन देना, चुराई हुई वस्तु लेना, उसमें किंचित मात्र भी सहयोग करना, उनके अनुसार अपराध
है। जैन धर्म के भगवान महावीर ने कहा है कि यदि कोई साधु अपने बीमार या संकट में फ़सें
साथी को छोड़कर तपस्या में लग जाता है तो वह अपराधी है। संघ में रहने योग्य नहीं है।
उसे एक सौ बीस उपवासों का प्रायश्चित करना पड़ेगा। महावीर ने कहा है कि सुख तुम्हारे
भीतर है। उसे बाहर मत खोजो। जो बाहर सुख को खोजता है उसे बाहर कष्ट के सिवा कुछ प्राप्त
नहीं होता है। भगवान महावीर का यह मानना था कि मनुष्यों को हमेशा खुद अपनी परेशानियों
का सामना करना चाहिए न की उससे भागना चाहिए तभी ज़िंदगी में आप सफल हो सकते हैं।
जो संतोष के पथ पर चलता है। वह व्यक्ति पूजा-प्रतिष्ठा
योग्य है। कहा भी गया है संतोषम
परम सुखम। पावापुर यानी की पटना में 72 वर्ष की अवस्था में विक्रम संवत् से पूर्व
470 के कार्तिक मास अमावस्या तिथि को स्वाति नक्षत्र में महावीर के निर्वाण समय माना
गया है। महावीर ने अहिंसा का सिद्धांत दिया ताकि हर व्यक्ति को जीने का पूरा-पूरा अधिकार
मिल सके। सत्य का सिद्धांत दिया ताकि व्यक्ति झूठ, प्रपंच से समाज और स्वयं को मुक्त रख
सके। भगवान महावीर के सारे सिद्धांत जीवन सापेक्ष हैं। महावीर का कोई भी सिद्धांत ऐसा
नहीं है जो जीवन के विरुद्ध हो। महावीर भारतीय विरासत के एक महान विभूति हैं। उन्होंने संपूर्ण मानव सभ्यता
को एक नयी राह दिखाई। उनके विचार,
उनकी मृत्यु के लगभग 2600
वर्षों के पश्चात् आज भी हमारे समाज के लिये प्रासंगिक बना हुआ है।
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