राजधानी बदलने का किस्सा आंध्र प्रदेश में बहुत पुराना हैं। इतिहास गवाह है आंध्र प्रदेश को सीमाएं बदलने के साथ ही हर बार इस प्रदेश को राजधानी के लिए समझौता करना पड़ा है। सबसे पहले साल 1953 में मद्रास से अलग कर एक नया राज्य बना दिया गया। जिसका नाम दिया गया आंध्र प्रदेश। तब राजधानी मद्रास, तमिलनाडु में चला गया था। फिर आंध्रप्रदेश को नयी राजधानी बनानी पड़ी थी। 1956 में आंध्र प्रदेश गठित होने के साथ ही करनूल, हैदराबाद में मिल गया जिससे एक बार फिर प्रदेश को राजधानी के रूप में करनूल खोना पड़ा। इसी तरह 2014 में तेलंगाना के अलग राज्य बनने पर हैदराबाद तेलंगाना की सीमा में आ गया। अमरावती को राज्य की राजधानी बनाए जाने की दिशा में काम होना था जिसके लिए 33 हजार करोड़ रुपये का बजट तय हुआ। लेकिन प्रदेश में टीडीपी के बजाय वाईएसआर की सरकार बन गयी और अमरावती को राजधानी बनाने का फैसला खटाई में पड़ गया।
हाल ही में आंध्र प्रदेश उच्च
न्यायालय ने राज्य की तीन राजधानी बनाने संबंधी वाईएसआर कांग्रेस पार्टी सरकार की
योजना को झटका देते हुए आदेश दिया है कि अमरावती मास्टर प्लान को लागू किया जाए और
क्षेत्र में सभी विकास गतिविधियों को जारी रखा जाए। इससे पहले वाईएस जगनमोहन
रेड्डी सरकार ने एक बिल विधानसभा में पास किया था। विधानसभा में पास हुए विधेयक के
मुताबिक विशाखापट्टनम को कार्यकारी, अमरावती को विधायी और करनूल को
न्यायिक राजधानी बनाया जाना था। सरकार इस कदम को राज्य के विकास के लिए जरूरी बता
रही थी। वहीं दूसरी ओर आंध्र प्रदेश की विपक्षी पार्टियां सरकार के फैसले का
व्यापक विरोध कर रही थी।
अदालत ने अपने फैसले में कहा
है कि राज्य विधायिका के लिए, आंध्र प्रदेश कैपिटल सिटी लैंड पूलिंग स्कीम
नियम, 2015 के तहत जमा की गई भूमि, और
आंध्र प्रदेश राजधानी क्षेत्र विकास प्राधिकरण अधिनियम, 2014
की धारा 3 के तहत राजधानी को स्थानांतरित करने, विभाजित करने
या तीन भागों में विभाजित करने तथा उच्च न्यायालय सहित सरकार के तीन अंगों से
संबंधित विभागों के मुख्यालयों को अधिसूचित राजधानी शहर के अलावा किसी भी क्षेत्र
में स्थानांतरित करने के लिए कोई कानून बनाने की शक्ति नहीं है।
संविधान के अनुच्छेद 4 में नियोजित
भाषा के अनुसार, राज्य में विधायिका, कार्यकारिणी और
न्यायिक अंगों की स्थापना संबंधी मामलों में निणर्य लेने की शक्ति केवल संसद के
पास है। अनुच्छेद 4 के अनुसार, नए राज्यों की स्थापना और नए
राज्यों के गठन और मौजूदा राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या
नामों के परिवर्तन हेतु बनाए गए कानूनों को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन के
रूप में नहीं समझा जाएगा।
हाईकोर्ट के फैसले के बाद अब
राज्य सरकार के सामने बस दो विकल्प है। पहला, उच्च न्यायालय के फैसले को लागू करे
और अमरावती को राज्य की राजधानी के तौर पर विकसित करे। दूसरा उच्चततम न्यायलय में
इस फैसले के विरुद्ध अपील दायर करे। लेकिन सरकार उच्चतम न्यायालय जाने के बारे में
निर्णय नहीं ले पा रही है। दूसरी तरफ, अमरावती में छह माह की
निर्धारित समय सीमा के अंदर विकास गतिविधियों को पूरा करना करीब-करीब असंभव प्रतीत
होता है, क्योंकि सरकार के पास जरूरी धनराशि समेत आवश्यक
संसाधनों का अभाव है।
दरअसल 2009 में तेलंगाना के
निर्माण के लिए आंध्र प्रदेश के विभाजन के बाद हैदराबाद बतौर राजधानी तेलंगाना के
हिस्से में चला गया। इसके बाद, चंद्रबाबू नायडू ने एक बड़ी योजना तैयार करते
हुए अमरावती के नाम से एक नई राजधानी बनाने का काम शुरू किया। इसके लिए गुंटूर और
कृष्णा जिलों के 29 गांवों में जमीन का अधिग्रहण किया गया। स्थायी राजधानी के लिए
मास्टर प्लान भी तैयार कर लिया गया था। लेकिन आलोचकों ने यह शिकायत की, कि
चंद्रबाबू और उनके टीडीपी नेताओं ने इन इलाकों में हजारों एकड़ जमीन खरीद लिया था
और यहां राजधानी की योजना बनाकर करोड़ों का मुनाफा कमाने के फिराक में हैं।
इसके बाद साल 2018 में हुए
विधानसभा चुनाव में चंद्रबाबू की हार हो गई। हार के बाद अमरावती को राजधानी बनाने
का उनका सपना चकनाचूर हो गया। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह बदला लेने की
इच्छा थी जिसकी वजह से जगन ने तीन राजधानियों का प्रस्ताव पेश किया और अमरावती को राजधानी
बनने की राह में रोड़े खड़े कर दिये। जगन रेड्डी की योजना के मुताबिक अमरावती को
केवल राज्य विधायी राजधानी बनाया जाना था। जहां केवल राज्य की विधानसभा होती।
उत्तरी इलाके में स्थिति विशाखापटनम को कार्यकारी राजधानी बनाया जाता, जहां सरकार
बैठती। जबकि करनूल न्यायिक राजधानी होती, जहां राज्य का हाईकोर्ट होता। इस
प्रकार, आंध्र प्रदेश के तीनों क्षेत्रों, उत्तर में सीमांध्र, राज्य का तटीय इलाका और दक्षिण
में रायलसीमा में अलग-अलग राजधानियां होतीं, जो लोगों की
जरूरतों को पूरा करती।
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