Science
लगभग 200 वर्ष के कठोर संघर्ष के
बाद 15 अगस्त, 1947 को भारत माता के
क्षितिज पर स्वतंत्रता रूपी सूर्य का उदय हुआ था और हमारी अपनी सरकार सत्ता में आई
थी.. स्वतंत्रता के शैशव काल में ही हमारे देश को बड़ी कठिन और जटिल समस्याओं का
सामना करना पड़ा.. स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हमारा वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी
ढांचा न तो विकसित देशों जैसा मजबूत था और न ही संगठित... इसके फलस्वरूप हम
प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अन्य देशों में उपलब्ध हुनर और विशेषज्ञता पर आश्रित
थे.. विदेशों पर आश्रित रहने के बावजूद भारत साल-दर-साल विकास के नए आयाम गढ़ रहा
था.. चंद्रयान और परमाणु पनडुब्बी जैसा कुछ ऐसी परियोजनाएँ लेकर आई जिनके कारण
पूरा विश्व भारत को उभरती महाशक्ति के रूप में मान्यता देने को मजबूर होने
लगा.. आजादी के बाद जहाँ भारत ने समाज के हर क्षेत्र में तेजी से विकास किया वहीं
विज्ञान के क्षेत्र में भी अनेक उपलब्धियाँ हासिल की.. स्वतंत्र भारत की प्रथम
सरकार में विज्ञान और प्राकृतिक संसाधनों का एक पृथक मंत्रालय बनाया गया.. यह
मंत्रालय भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने अधीन रखा था..
नेहरू जी भारत के बहुमुखी विकास के लिए प्रतिबद्ध थे.. उन्होंने वैज्ञानिक
अनुसंधान के लिए सब तरह के साधन और सुविधाएं जुटाईं... इसमें कोई दो राय नहीं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद
भारत का वैज्ञानिक विकास देश के प्रथम प्रधनमंत्र पं॰ जवाहरलाल नेहरू के समय में
हुआ.. उन्होंने देश के वैज्ञानिक विकास के लिए लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण
जगाने का संकल्प लिया। अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण ही उन्होंने इस कार्य को
डॉ॰ शांतिस्वरूप भटनागर को सौंप दिया... डॉ॰ शांतिस्वरूप भटनागर ने औद्योगिक
अनुसंधान का प्रणेता होने का गौरव प्राप्त हुआ.. वैज्ञानिक अनुसंधान और आविष्कारों
के लिए दिया जाने वाला देश का सर्वोच्च शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार इन्हीं के नाम
पर वैज्ञानिकों को दिया जाता है। देश के समुचित वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास के
लिए डॉ॰ भटनागर ने अथक परिश्रम किया और इसके लिए उन्हें पं॰ नेहरू का भरपूर सहयोग
मिला जिसके परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की कड़ी स्थापित होती
चली गई। इस कड़ी की पहली प्रयोगशाला पुणे स्थित राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला थी, जिसका उद्घाटन
3 जनवरी 1950 को पं॰ नेहरू ने किया। इसके बाद दिल्ली में राष्ट्रीय भौतिकी
प्रयोगशाला तथा जमशेदपुर में राष्ट्रीय धत्विक प्रयोगशाला की स्थापना हुई। 10
जनवरी 1953 को नई दिल्ली में सी. एस. आई. आर. मुख्यालय का उद्घाटन हुआ.. 1 जनवरी
1955 को जब डॉ॰ भटनागर की मृत्यु हुई थी तब तक देश में विभिन्न स्थानों पर लगभग 15
राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की स्थापना हो चुकी थी और ये सभी प्रयोगशालाएँ किसी-न-किसी
उद्योग से जुड़ी थीं। इन सभी प्रयोगशालाओं का उद्घाटन और शिलान्यास पं॰ नेहरू
द्वारा ही संपन्न हुआ। प्रयोगशालाओं की बढ़ती कड़ी को ‘नेहरू-भटनागर
प्रभाव’ कहा गया है.. विज्ञान
भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहा है.. आजादी के बाद भारतीय वैज्ञानिकों ने
उल्लेखनीय प्रगति की थी.. 1947 में देश के आजाद होने
के पश्चात संस्थाओं की स्थापना की गई ताकि विज्ञान के क्षेत्र में सहज एवं
रचनात्मक प्रगति को और बढ़ावा मिल सके। इस कार्य में विभिन्न राज्यों ने भी अपना
भरपूर सहयोग दिया। इसके बाद से भारत सरकार ने देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की
आधुनिक अवसंरचना के निर्माण में कोई कसर नहीं छोड़ी.. 1960 के
दशक के प्रारंभिक वर्षों में अंतरिक्ष अनुसंधान की शुरूआत भारत में मुख्यत:
साउंडिंग रॉकेटों की मदद से हुई। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की स्थापना
1969 में की गई। भारत सरकार द्वारा 1972 में अंतरिक्ष आयोग और अंतरिक्ष विभाग के गठन से अंतरिक्ष शोध गतिविधियों
को अतिरिक्त गति प्राप्त हुई। इसरो को उसकी वर्ष अंतरिक्ष विभाग के नियंत्रण में
रखा गया। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के इतिहास में 70 का दशक
प्रयोगात्मक युग था जिस दौरान आर्यभट्ट, भास्कर, रोहिणी तथा एप्पल जैसे प्रयोगात्मक उपग्रह कार्यक्रम चलाए गए। इन
कार्यक्रमों की सफलता के बाद 80 का दशक संचालनात्मक युग बना
जबकि इनसेट तथा आईआरएस जैसे उपग्रह कार्यक्रम शुरू हुए। आज इनसेट तथा आईआरएस इसरो
के प्रमुख कार्यक्रम हैं।
हरित क्रांति का जन्म: सन् 1967 से लेकर 1978 तक चली हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना
दिया। आईटी क्रांति: 1968 में टाटा कन्सल्टन्सी सर्विसिज़ की स्थापना से
भारत नई ऊँचाई पर पहुंचा दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हमारा वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी ढांचा न
तो विकसित देशों जैसा मजबूत था और न ही संगठित... इसके फलस्वरूप हम प्रौद्योगिकी
के क्षेत्र में अन्य देशों में उपलब्ध हुनर और विशेषज्ञता पर आश्रित थे.. विदेशों
पर आश्रित रहने के बावजूद भारत साल-दर-साल विकास के नए आयाम गढ़ रहा था.. विज्ञान
के क्षेत्र में भारत को आजादी के बाद सबसे बड़ी उपलब्धि 19 अप्रैल 1975 को मिली जब भारत अपना पहला
उपग्रह आर्यभट्ट लॉन्च कर अंतरिक्ष युग में दाखिल हुआ था... यह भारत का पहला
वैज्ञानिक उपग्रह था, जो लॉन्च होने के 17 साल के बाद 11 फरवरी 1992 को पृथ्वी पर वापस आया...
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में
भारत की प्राचीनकाल की उपलब्धियों से लेकर इस शताब्दी में प्राप्त महान सफलताओं की
एक लंबी और अनूठी परंपरा रही है.. भारत में टेलीविजन प्रसारण की शुरुआत दिल्ली से 15 सितंबर, 1959 को हुई
थी। 1972 तक टेलीविजन की सेवाएं अमृतसर और मुंबई के लिए बढ़ाई गईं। 1975 तक भारत
के केवल सात शहरों में ही टेलीविजन की सेवा शुरू हो पाई थी.. प्राचीन भारतीय
परंपरा ने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में तो काफ़ी तेजी से विकास कर लिया था, किंतु
यांत्रिकी यानी मशीनी स्तर पर कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं की.. जिसके बाद
होमी भाभा की दूरदर्शिता पर काम करते हुए विक्रम साराभाई ने 1970 के दशक में
केंद्रीय सरकार में इलेक्ट्रॉनिक्स का विभाग भी बना दिया.. उस समय भारत के पास
इलेक्ट्रॉनिक वॉल्व के साथ एक छोटा से रेडीयो उद्योग था.. इन्हीं दिनों में टाटा
इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च ने एक वॉल्व आधारित एक कंप्यूटर बनाया.. यह
दुनिया के सबसे बड़े कम्पूटर में से एक था.. चिकित्सा के क्षेत्र में भी भारत 70
के दशक में रोज नये नये किर्तिमान स्थापित कर रहा था.. राष्ट्रीय चिकित्सा विज्ञान
अकादमी की स्थापना एक पंजीकृत संस्था के रूप में 1962 में की गई, इस अकादमी का
मुख्य उद्देश्य चिकित्सा विज्ञान के उत्थान को प्रोत्साहन देना था... वैज्ञानिक
अनुसंधानों के बलबूते पर भारत ने जलयान निर्माण, रेलवे उपकरण, मोटर उद्योग, कपड़ा उद्योग में
आशातीत सफलता प्राप्त की है.. 1960
के दशक के प्रारंभिक वर्षों में अंतरिक्ष अनुसंधान की शुरूआत भारत में मुख्यत:
साउंडिंग रॉकेटों की मदद से हुई.. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो की स्थापना
1969 में की गई.. भारत सरकार द्वारा 1972 में अंतरिक्ष आयोग और अंतरिक्ष विभाग के गठन से अंतरिक्ष शोध गतिविधियों
को अतिरिक्त गति प्राप्त हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हमारा वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी ढांचा न
तो विकसित देशों जैसा मजबूत था और न ही संगठित... इसके फलस्वरूप हम प्रौद्योगिकी
के क्षेत्र में अन्य देशों में उपलब्ध हुनर और विशेषज्ञता पर आश्रित थे.. विदेशों
पर आश्रित रहने के बावजूद भारत साल-दर-साल विकास के नए आयाम गढ़ रहा था.. विज्ञान
के क्षेत्र में भारत को आजादी के बाद सबसे बड़ी उपलब्धि 19 अप्रैल 1975 को मिली जब भारत अपना पहला
उपग्रह आर्यभट्ट लॉन्च कर अंतरिक्ष युग में दाखिल हुआ था... यह भारत का पहला
वैज्ञानिक उपग्रह था, जो लॉन्च होने के 17 साल के बाद 11 फरवरी 1992 को पृथ्वी पर वापस आया...
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में
भारत की प्राचीनकाल की उपलब्धियों से लेकर इस शताब्दी में प्राप्त महान सफलताओं की
एक लंबी और अनूठी परंपरा रही है.. भारत में टेलीविजन प्रसारण की शुरुआत दिल्ली से 15 सितंबर, 1959 को हुई
थी। 1972 तक टेलीविजन की सेवाएं अमृतसर और मुंबई के लिए बढ़ाई गईं। 1975 तक भारत
के केवल सात शहरों में ही टेलीविजन की सेवा शुरू हो पाई थी.. प्राचीन भारतीय
परंपरा ने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में तो काफ़ी तेजी से विकास कर लिया था, किंतु यांत्रिकी
यानी मशीनी स्तर पर कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं की.. जिसके बाद होमी भाभा
की दूरदर्शिता पर काम करते हुए विक्रम साराभाई ने 1970 के दशक में केंद्रीय सरकार
में इलेक्ट्रॉनिक्स का विभाग भी बना दिया.. उस समय भारत के पास इलेक्ट्रॉनिक वॉल्व
के साथ एक छोटा से रेडीयो उद्योग था.. इन्हीं दिनों में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ
फंडामेंटल रिसर्च ने एक वॉल्व आधारित एक कंप्यूटर बनाया.. यह दुनिया के सबसे बड़े
कम्पूटर में से एक था.. चिकित्सा के क्षेत्र में भी भारत 70 के दशक में रोज नये
नये किर्तिमान स्थापित कर रहा था.. राष्ट्रीय चिकित्सा विज्ञान अकादमी की स्थापना
एक पंजीकृत संस्था के रूप में 1962 में की गई, इस अकादमी का मुख्य उद्देश्य
चिकित्सा विज्ञान के उत्थान को प्रोत्साहन देना था... वैज्ञानिक अनुसंधानों के
बलबूते पर भारत ने जलयान निर्माण, रेलवे उपकरण, मोटर उद्योग, कपड़ा उद्योग में
आशातीत सफलता प्राप्त की है.. 1960
के दशक के प्रारंभिक वर्षों में अंतरिक्ष अनुसंधान की शुरूआत भारत में मुख्यत:
साउंडिंग रॉकेटों की मदद से हुई.. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो की स्थापना
1969 में की गई.. भारत सरकार द्वारा 1972 में अंतरिक्ष आयोग और अंतरिक्ष विभाग के गठन से अंतरिक्ष शोध गतिविधियों
को अतिरिक्त गति प्राप्त हुई। भारत में वैज्ञानिक उपलब्धियों का यह वह दौर था जब आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा यहीं से
प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा से खुद को अलग कर रही थी... आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा की
सबसे बड़ी उपलब्धि भारत को इन्ही दिनों में मिली.. कंप्यूटर के विकास से रसायन, भौतिक, जीव विज्ञान से
लेकर चिकित्सा के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग आसानी से हो रहे थे... आजादी के बाद के
इन वर्षों में कृषि, चिकित्सा, परमाणु ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिकी, संचार, अंतरिक्ष, परिवहन और रक्षा विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति के कारण आज भारत
देश विकासशील देशों की श्रेणी में अग्रणी है। कृषि से लेकर अंतरिक्ष अनुसंधान तक
की कठिन यात्रा आज विश्व पटल पर भारत को अपना एक अलग पहचान दिलाता है... 1975 से
1985 का यह वह दौर था जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने पोखरण
में परमाणु परीक्षण कर विश्व पटल पर अपनी सैन्य ताकत दर्ज कराने की कोशिश की... इंदिरा
गांधी ने इसे शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण करार दिया.. जिसके बाद अमरीका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के बाद भारत छठा ऐसा देश बन
गया जिसने परमाणु परीक्षण किया... इतना ही नहीं इन्हीं दिनों भारत ने भविष्य में
संचार की आवश्यकता एवं दूरसंचार का पूर्वानुमान लगते हुए, उपग्रह के लिए
तकनीक का विकास प्रारम्भ कर दिया था.. भारत ने पहली बार 1979 में एक प्रायोगिक उपग्रह
भास्कर-1 का प्रक्षेपण किया जो भारत में निर्मित प्रथम प्रायोगिक सुदूर संवेदन
उपग्रह था.. 1980 में एसएलवी-3 की सहायता से रोहिणी उपग्रह का सफलता पूर्वक कक्षा
में स्थापन कराया गया.. 1981 में भास्कर-2 और एप्पल जैसे भूवैज्ञानिक संचार उपग्रह
का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया गया.. 1982 में इन्सैट-1 का प्रक्षेपण और 1983 में एस
एल वी-3 का दूसरा प्रक्षेपण के बदलौत भारत ने संचार के क्षेत्र में अपना परचम
लहराना शुरू कर दिया था... 1984-भारत और सोवियत संघ द्वारा संयुक्त अंतरिक्ष
अभियान में राकेश शर्मा का पहला भारतीय अंतरिक्ष यात्री बनना... इस दौर में भारत
के पास अपना कोई सुपरकंप्यूटर नहीं था... वह इसे अमेरिका से लेना चाहता था लेकिन
अमेरिका ने इस बात से मना कर दिया.. लेकिन भारत में सेंटर ऑफ डेवलपमेंट
पुणे ने सी-डेक परम-8000 कंप्यूटर बनाकर अपनी क्षमताओं का दुनिया को एहसास करा
दिया.. आजादी के बाद जहां भारत ने समाज के हर क्षेत्र में तेजी से विकास किया
वहीं विज्ञान के क्षेत्र में भी अनेक उपलब्धियाँ हासिल की.. 90 के दशक में विज्ञान और टेक्नोलॉजी के मामले
में भारत में कई अत्याधुनिक बदलाव देखे गए... सूचना प्रौद्योगिकी, विशेष रूप से
कंप्यूटर और संचार की दिशा में हो रहे विकास ने दूरसंचार तथा कंप्यूटर उद्योग में
क्रांति ला दी... डिजीटल प्रौद्योगिकी पर आधरित मोबाइल, सेलुलर, रेडियो, पेजिंग, इंटरनेट के
आगमन ने सूचना और संचार के क्षेत्र में काफ़ी परिवर्तन ला दिया.. साल 1989 से कम्प्यूटर
क्षेत्र गति पकड़ता गया.. इस क्षेत्र के दो मुख्य घटक आईटी सेवाएं और बीपीओ रोज नये
कीर्तिमान बना रहे थे.. आज हम मोबाइल, इंटरनेट, कम्प्यूटर के साथ साथ
साफ्टवेयर और रोजमर्रे में बहुत सी ऐसी आई.टी. सेवाओं ओर तकनीकों का इस्तेमाल कर
रहे हैं जिसके बिना हम आधुनिक दौर में जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते..... 1988-भारत का पहला दूर संवेदी उपग्रह आईआरएस-1 का प्रक्षेपण किया जबकि
1990 में इन्सैट-1डी का सफल प्रक्षेपण हुआ.. 1991-अगस्त में दूसरा दूर संवेदी
उपग्रह आईआरएसएस-1बी का प्रक्षेपण हुआ.. 1992-एएसएलवी द्वारा तीसरा प्रक्षेपण मई
महीने में। 1992 में ही पूरी तरह स्वेदेशी तकनीक से बने उपग्रह इन्सैट-2ए का सफल
प्रक्षेपण.. 1994-मई महीने में एसएसएलवी का चौथा सफल प्रक्षेपण.. 1995-दिसंबर में
इन्सैट-2सी का प्रक्षेपण और 1996 मे तीसरे भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आईआरएसएस-पी3
का पी एस एल वी की सहायता से मार्च महीने में सफल प्रक्षेपण किया गया
Film
50 के दशक में सामाजिक विषयों पर आधारित व्यवसायिक फिल्मों
का दौर शुरू हुआ। वी शांताराम की 1957 में बनी फिल्म ‘दो आंखे बारह हाथ’ में पुणे के ‘खुला जेल प्रयोग’ को दर्शाया गया। लता मंगेशकर ने इस फिल्म के गीत ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम’ को आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
फणीश्वरनाथ रेणु की बहुचर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम’ हिन्दी सिनेमा में कथानक और अभिव्यक्ति का सशक्त उदाहरण
है। ऐसी फिल्मों में बदनाम बस्ती, आषाढ़ का दिन, सूरज का सातवां घोड़ा, एक था चंदर-एक थी सुधा, सत्ताईस डाउन, रजनीगंधा, सारा आकाश, नदिया के पार आदि प्रमुख है। 'धरती के लाल और नीचा नगर’ के माध्यम से दर्शकों को खुली हवा का स्पर्श मिला और
अपनी माटी की सोंधी सुगन्ध, मुल्क की समस्याओं एवं विभीषिकाओं के बारे में लोगों की
आंखें खुली। ‘‘देवदास, बन्दिनी, सुजाता और परख’’ जैसी फिल्में उस समय बाक्स आफिस पर उतनी सफल नहीं रहने
के बावजूद ये, फिल्मों के भारतीय
इतिहास के नये युग की प्रवर्तक मानी जाती हैं। महबूब खान की साल 1957 में बनी फिल्म ‘‘मदर इण्डिया’’ हिन्दी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में मील का पत्थर मानी
जाती है। सत्यजीत रे की फिल्म पाथेर पांचाली और शम्भू मित्रा की फिल्म ‘जागते रहो’ फिल्म निर्माण और कथानक का शानदार उदाहरण थी। इस श्रृंखला
को स्टर्लिंग इंवेस्टमेंट कारपोरेशन लिमिटेड के बैनर तले निर्माता निर्देशक के
आसिफ ने ‘मुगले आजम’ के माध्यम से नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। पचास के दशक में अभिनेताओं में शम्मी कपूर,राजेन्द्र कुमार, राज कुमार, सुनील दत्त, जीवन, किशोर कुमार, मदन पुरी,ओम शिवपुरी,अनूप कुमार और राजेन्द्र नाथ चर्चित रहे तथा
अभिनेत्रियों में चर्चित रही मधुबाला,वहीदा रहमान और आशा पारेख..
साठ के दशक के चर्चित अभिनेताओं में शशि कपूर,कैस्टो मुखर्जी,धर्मेन्द्र,जितेन्द्र,राजेश खन्ना,संजीव कुमार,फ़िरोज़ ख़ान,संजय ख़ान,जॉय मुखर्जी,विश्वजीत,मनमोहन कृष्णा,ओम प्रकाश,असित सेन,प्रेम चोपड़ा,ए के हंगल और रमेश देव का नाम आता है, वहीं अभिनेत्रियों में प्रिया राजवंश,नरगिस,हेमा मालिनी,शर्मिला टैगोर,राखी गुलज़ार आदि की...1 जनवरी 1961 को एक फिल्म आयी ‘गंगा जमुना’। इस फिल्म में अवधी संवादों का प्रयोग था। हिन्दी
सिनेमा के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। यह फिल्म व्यापक सफल हुई थी। इसके
निर्माता दिलीप कुमार के भाई नासिर खाँ एवं निर्देशक नितिन बोस थे। दिलीप कुमार
एवं वैजयन्ती माला के साथ नज़ीर हुसैन ने भी इस फिल्म में अभिनय किया था। ‘गंगा जमुना’ ने यह विश्वास कायम कर दिया था कि अगर कोई उत्तर भारतीय
बोलियों-भाषाओँ में भी फ़िल्में बनाए, तो वह घाटे का सौदा नहीं होगा। भारत के प्रथम राष्ट्रपति
की इच्छा थी कि भोजपुरी में भी फिल्म निर्माण किया जाये। उनकी इस इच्छा के
दृष्टिगत भोजपुरी की पहली फिल्म का निर्माण हुआ, जिसका नाम था "हे गंगा मैया तोहे पियरी
चढ़ाइबो"। फिल्म निर्माता विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी ने 21 फ़रवरी 1963 को तत्कालीन राष्ट्रपति देशरत्न डॉ॰ राजेन्द्रप्रसाद को
पटना के सदाकत आश्रम में समर्पित किया। यानि 21 फ़रवरी 1963 को इस फ़िल्म का उद्घाटन समारोह समझा गया। इसके एक दिन
बाद अर्थात 22 फ़रवरी 1963 को फिल्म का एक
प्रीमियर शो पटना के वीणा सिनेमा में रखा गया। लेकिन इसके व्यावसायिक प्रदर्शन की
शुरुआत 4 अप्रैल 1963 को वाराणसी के प्रकाश
टॉकीज (अब बन्द हो चुका है) से हुई। यह आश्चर्य का विषय है कि इस वर्ष एक ओर
भारतीय सिनेमा अपना शताब्दी वर्षगांठ मनाने जा रहा है तो दूसरी ओर भोजपुरी सिनेमा
अपना पच्चस वर्ष भी पूरा कर रहापचास के दशक मे ट्रेजडी किंग के रूप में
दिलीप कुमार लोकप्रिय हुये। दिदार (1951) और देवदास(1955) जैसी फिल्मो मे दुखद भूमिकाओं के मशहूर होने के कारण
उन्हे ट्रेजिडी किंग कहा गया। मुगले-ए-आज़म (1960) मे उन्होने मुग़ल राजकुमार जहांगीर की भूमिका
निभाई। यह फिल्म पहले श्वेत और श्याम थी और 2004 मे रंगीन बनाई गई। उन्होने 1961 मे गंगा-जमुना फिल्म का निर्माण भी किया, जिसमे उनके साथ उनके छोटे भाई नासीर खान ने
काम किया..1949 में
आई बरसात एक करोड़ 10 लाख का कारोबार करके सभी फिल्मों का रिकार्ड तोड़
दिया। 1951 में आई आवारा एक करोड़ 25 लाख
का कारोबार करके राज कपूर ने अपनी ही पिछली फिल्म का रिकार्ड तोड़ दिया। 1952 में
आई आन ने डेढ़ करोड़ का मुनाफा कमाया। 1955 में आई श्री 420 के
जरिए एक बार फिर आरके फिल्म्स ने अपनी कामयाबी की कहानी लिखी। फिल्म ने उस जमाने
में दो करोड़ कमाए। 1960 में आई मुगले आज़म ने कामयाबी के ऐसा रिकार्ड बनाए
जो अगले 15 सालों तक कोई नहीं तोड़ सका। यह उस दौर की सबसे महंगी
फिल्म थी और इसने साढ़े पांच करोड़ कमाए। हालांकि फिल्म जब रिलीज हुई तो रंगीन
फिल्मों का दौर शुरु हो गया था मगर इस फिल्म के गीत-संगीत, संवाद
और दिलीप कुमार, पृथ्वीराज कपूर और मधुबाला के अविस्मरणीय अभिनय ने
धूम मचा दी भारतीय सिनेमा जगत में 1965-1975 के दशक को जहां एक ओर
रोमांटिक फिल्मों के स्वर्णिम काल के रूप मे याद किया जायेगा, वहीं दूसरी ओर इसे हिन्दी सिनेमा के पहले
सुपरस्टार राजेश खन्ना, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, जुबली कुमार उर्फ राजेन्द्र कुमार, हीमैन धमेंद्र और जंपिक जैक जितेंद्र के
इंडस्ट्री में आगमन का दशक भी कहा जायेगा... हिन्दी सिनेमा के इस दौर में बॉलीवुड
की इंद्रधनुषी दुनिया पर फ्लेश बैक के जरिए नजरें दौड़ाई जाएँ, तो सब कुछ बदला-बदला सा लगता है.. 70 के दशक
में हिन्दी सिनेमा का संसार पहले से कहीं ज्यादा सतरंगी हो गया था.. हेलन कैबरे
लेकर क्लबों, बार-रूम और होटलों में ‘मेरा नाम चिन-चिन चू’ गाकर ऐसे नाचने लगी कि दर्शकों के दिल सीने से बाहर निकलकर
जोर-जोर से धक-धक करने लगे थे... आशा भोंसले की मादक-मोहक उत्तेजक आवाज के जादू ने
बगैर पिए ही दर्शकों को सुरूर में ला दिया.. हिन्दी सिनेमा का यह वह दौर था जब
चम्बल के बीहड़ से निकलकर तमाम डाकू फिल्मों के परदे पर बंदूक लेकर आ धमके थे...
आगे चलकर यही डाकू, गब्बरसिंह बन गया, जो पचास-पचास कोस तक माँ की गोद में लेटे
बच्चों को डराने लगा। ‘शोले’ फिल्म के बाद सिनेमा का परदा खून से लाल हो गया।
खलनायकों के हाथों में मशीनगन आ गई.. वह हेलिकॉप्टर से लटकते हुए गोलियों की बरसात
करने लगा.. 1974 में आई शोले एक ऐसी
फिल्म जिसके रिलीज होने पर समीक्षकों ने उसे औसत दर्जे का बताया और पहले हफ्ते में
उसे फ्लाप घोषित कर दिया गया। धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता ने रफ्तार पकड़ी और आज की
तारीख में यह भारतीय सिनेमा की 'आल टाइम ग्रेट' फिल्म है, न सिर्फ बिजनेस के मामले में बल्कि कहानी कहने के
दिलचस्प सलीके के कारण भी। फिल्म ने 65 करोड़ का कारोबार किया.. साल 1968 में सिनेमा जगत के इतिहास की सबसे लोकप्रिय हास्य फिल्म
पड़ोसन में महमूद ने निगेटिव किरदार निभाकर दर्शकों को अचरज में डाल दिया.... 1969 में रिलीज ख्वाजा अहमद
अब्बास की फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ से सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने रूपहले
पर्दे पर एंट्री की थी। वहीं इसी वर्ष बिहारी बाबू शत्रुध्न सिंहा ने भी ‘साजन’ में पहली बार एक छोटी भूमिका निभायी थी। वहीं शक्ति
सामंत की फिल्म ‘आराधना’ से राजेश खन्ना के रूप में फिल्म इंडस्ट्री
को अपना पहला सुपरस्टार मिला। इसी वर्ष भारतीय सिनेमा जगत की पहली ड्रीम गर्ल कही
जाने वाली देविका रानी को पहला दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त हुआ.. साल 1965 मे आई बीआर चोपड़ा और
यश चोपड़ा की ‘वक्त’ को पहली मल्टीस्टारर फिल्म कहा जाता है...
वर्ष 1965 में देवानंद ने अपनी
पहली कलर फिल्म गाईड का निर्माण किया... 1966 में राजेश खन्ना ने अपने करियर की शुरूआत चेतन आंनद की
फिल्म ‘आखिरी खत’ से की... 1963 से 1966 तक राजेंद्र कुमार की लगातार छह फिल्में मेरे महबूब, जिन्दगी, संगम, आई मिलन की बेला, आरजू और सूरज ने सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली या गोल्डन
जुबली मनायी। इसी को देखते हुये उनके प्रशंसको ने उनका नाम जुबली कुमार रख दिया था...
1970 में राजकपूर ने अपनी
फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का निर्माण किया.. बेहतरीन स्टोरी लाईन और
राजकपूर समेत कई सितारों के होने के बावजूद यह फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह नकार
दी गयी... यह अलग बात है कि बाद में इसे कालजयी फिल्म का दर्जा प्राप्त हुआ.. 1972 में चित्रलेखा जैसी
सुंदर मीना कुमारी की 14 वर्षों में बनी पाकीजा प्रदर्शित हुई.. मीना कुमार की
लाजवाब अदाकारी आज भी लोगों के याद है... सत्तर के दशक में जिन अभिनेताओं की चर्चा
हुयी उनमें प्रमुख हैं अमिताभ बच्चन,अनिल कपूर,नवीन निश्चल,राकेश रोशन,राकेश बेदी और ओम पुरी.... वहीं अभिनेत्रियों में रेखा,मुमताज़,ज़ीनत अमान,परवीन बॉबी,नीतू सिंह,शबाना आज़मी,प्रीति गाँगुली,प्रीती सप्रू आदि चर्चित रही.... भारतीय सिनेमा जगत में 1965-1975 के दशक को जहां एक ओर
रोमांटिक फिल्मों के स्वर्णिम काल के रूप मे याद किया जायेगा, वहीं दूसरी ओर इसे हिन्दी सिनेमा के पहले
सुपरस्टार राजेश खन्ना, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, जुबली कुमार उर्फ राजेन्द्र कुमार, हीमैन धमेंद्र और जंपिक जैक जितेंद्र के
इंडस्ट्री में आगमन का दशक भी कहा जायेगा... हिन्दी सिनेमा के इस दौर में बॉलीवुड
की इंद्रधनुषी दुनिया पर फ्लेश बैक के जरिए नजरें दौड़ाई जाएँ, तो सब कुछ बदला-बदला सा लगता है.. 70 के दशक में
हिन्दी सिनेमा का संसार पहले से कहीं ज्यादा सतरंगी हो गया था.. हेलन कैबरे लेकर
क्लबों, बार-रूम और होटलों में ‘मेरा नाम चिन-चिन चू’ गाकर ऐसे नाचने लगी कि दर्शकों के दिल सीने से बाहर निकलकर
जोर-जोर से धक-धक करने लगे थे... आशा भोंसले की मादक-मोहक उत्तेजक आवाज के जादू ने
बगैर पिए ही दर्शकों को सुरूर में ला दिया.. हिन्दी सिनेमा का यह वह दौर था जब
चम्बल के बीहड़ से निकलकर तमाम डाकू फिल्मों के परदे पर बंदूक लेकर आ धमके थे...
आगे चलकर यही डाकू, गब्बरसिंह बन गया, जो पचास-पचास कोस तक माँ की गोद में लेटे
बच्चों को डराने लगा। ‘शोले’ फिल्म के बाद सिनेमा का परदा खून से लाल हो गया।
खलनायकों के हाथों में मशीनगन आ गई.. वह हेलिकॉप्टर से लटकते हुए गोलियों की बरसात
करने लगा.. 1974 में आई शोले एक ऐसी
फिल्म जिसके रिलीज होने पर समीक्षकों ने उसे औसत दर्जे का बताया और पहले हफ्ते में
उसे फ्लाप घोषित कर दिया गया। धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता ने रफ्तार पकड़ी और आज की
तारीख में यह भारतीय सिनेमा की 'आल टाइम ग्रेट' फिल्म है, न सिर्फ बिजनेस के मामले में बल्कि कहानी कहने के
दिलचस्प सलीके के कारण भी। फिल्म ने 65 करोड़ का कारोबार किया.. साल 1968 में सिनेमा जगत के इतिहास की सबसे लोकप्रिय हास्य फिल्म
पड़ोसन में महमूद ने निगेटिव किरदार निभाकर दर्शकों को अचरज में डाल दिया.... 1969 में रिलीज ख्वाजा अहमद
अब्बास की फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ से सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने रूपहले
पर्दे पर एंट्री की थी। वहीं इसी वर्ष बिहारी बाबू शत्रुध्न सिंहा ने भी ‘साजन’ में पहली बार एक छोटी भूमिका निभायी थी। वहीं शक्ति
सामंत की फिल्म ‘आराधना’ से राजेश खन्ना के रूप में फिल्म इंडस्ट्री
को अपना पहला सुपरस्टार मिला। इसी वर्ष भारतीय सिनेमा जगत की पहली ड्रीम गर्ल कही
जाने वाली देविका रानी को पहला दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त हुआ.. साल 1965 मे आई बीआर चोपड़ा और
यश चोपड़ा की ‘वक्त’ को पहली मल्टीस्टारर फिल्म कहा जाता है...
वर्ष 1965 में देवानंद ने अपनी
पहली कलर फिल्म गाईड का निर्माण किया... 1966 में राजेश खन्ना ने अपने करियर की शुरूआत चेतन आंनद की
फिल्म ‘आखिरी खत’ से की... 1963 से 1966 तक राजेंद्र कुमार की लगातार छह फिल्में मेरे महबूब, जिन्दगी, संगम, आई मिलन की बेला, आरजू और सूरज ने सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली या गोल्डन
जुबली मनायी। इसी को देखते हुये उनके प्रशंसको ने उनका नाम जुबली कुमार रख दिया था...
1970 में राजकपूर ने अपनी
फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का निर्माण किया.. बेहतरीन स्टोरी लाईन और
राजकपूर समेत कई सितारों के होने के बावजूद यह फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह नकार
दी गयी... यह अलग बात है कि बाद में इसे कालजयी फिल्म का दर्जा प्राप्त हुआ.. 1972 में चित्रलेखा जैसी
सुंदर मीना कुमारी की 14 वर्षों में बनी पाकीजा प्रदर्शित हुई.. मीना कुमार की
लाजवाब अदाकारी आज भी लोगों के याद है... सत्तर के दशक में जिन अभिनेताओं की चर्चा
हुयी उनमें प्रमुख हैं अमिताभ बच्चन,अनिल कपूर,नवीन निश्चल,राकेश रोशन,राकेश बेदी और ओम पुरी.... वहीं अभिनेत्रियों में रेखा,मुमताज़,ज़ीनत अमान,परवीन बॉबी,नीतू सिंह,शबाना आज़मी,प्रीति गाँगुली,प्रीती सप्रू आदि चर्चित रही....
80 के दशक में एक तरफ राजनीतिक तौर पर स्थिरता का दौर था वहीं सामाजिक जीवन
में स्थिरता और शांति थी... 80 के दशक में हिन्दी सिनेमा अपने शबाब पर था। उस दौरान फिल्मों मे
रोमांस और मारधाड़ की भरमार थी... इस दौर
में एक तरफ तो मीठे संगीत वाली प्रेम कहानियां जैसे अमर अकबर एंथनी, मुक़द्दर का सिकंदर, लावारिस और
शराबी 'लव स्टोरी', 'एक दूजे के लिए',
'चश्मेबद्दूर', 'हीरो', जैसी
फिल्में बनी और खूब चलीं वहीं दूसरी तरफ इस दौर की ज्यादातर फिल्में कहानी और
गीत-संगीत के लिहाज से कमजोर रहीं और उन फिल्मों में हिंसा का बोलबाला रहा... इसी
दौर में 'हुकूमत', 'आग ही आग',
'लोहा', 'वतन के रखवाले', 'तेजाब', 'जान हथेली पर', 'त्रिदेव',
'ऐलान-ए-जंग' जैसी फिल्में बनीं, जिनकी कहानी में आतंकवाद और अपराध जैसे विषय पर थे... अमिताभ और धर्मेन्द्र इस
दशक के प्रतिनिधि नायक रहे.. जय-वीरू की इस जोड़ी ने हिंदी सिनेमा के परदे पर धमाल
मचाया.. धर्मेन्द्र का मशहूर डायलाग– कुत्ते मैं तेरा ख़ून पी जाऊँगा, उस दौर के नायक के आक्रोश को दिखाता है... इस
दशक में जिन अभिनेताओं की चर्चा हो रही था वे थे अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र रिषी कपूर, अनिल कपूर, नवीन निश्चल, राकेश रोशन और ओम पुरी... वहीं अभिनेत्रियों में रेखा, मुमताज़, ज़ीनत अमान, परवीन बॉबी, नीतू सिंह, शबाना आज़मी, श्रीदेवी जैसी अभिनेत्रियों का बोलबाला था... 1980 का हिंदी फ़िल्मों का
दशक यथार्थवादी फ़िल्मों का दौर था... राम तेरी गंगा मैली और मशाल जैसी हिट
फिल्में इस दौर में बनी... इस घोर यथार्थवादी दौर में सच्चाई को दिखाने की होड़ सी
लग गयी थी... समानांतर सिनेमा का आंदोलन भी इसी दौर में चला... अंकुर, आक्रोश, अर्ध सत्य और सारांश जैसी फिल्में इसी दशक में बनीं..
फिल्म अर्थ महेश भट्ट की प्रतिभा का लोहा मनवाने में कामयाब रही... भीम सेन की
घरौंदा और बासु चटर्जी की फ़िल्म सारा आकाश भी इसी दशक में सामने आयी.. नसीरुद्दीन
शाह, ओम पुरी, शबाना आज़मी, अनुपम खेर, स्मिता पाटिल, ऋषि कपूर, अनिल कपूर, जैकी श्राफ़, सनी देओल और संजय दत्त ने अपने अभिनय का जादू इस दशक में
खूब दिखाया...
90 का हिंदी फ़िल्मों का दशक आर्थिक उदारीकरण का था...
विदेशी पूँजी और सामान का देश में आना सहज हो गया था.. प्रवासी भारतीयों का महत्व
बढ़ रहा था... सिनेमा ने भी अपने स्वरूप में बड़ा बदलाव लाया.. विदेशों में जाकर
शूटिंग की जाने लगी.. दिल वाले दुलहनियाँ ले जायेंगे, ताल और परदेश इसी दशक की कामयाब फिल्में रहीं... शाहरुख
खान इस दौर के सबसे सफ़ल फ़िल्म अभिनेता रहे.. इस दौर के प्रमुख फिल्मकारों में
आदित्य चोपड़ा, करण जौहर, राकेश रोशन, रामगोपाल वर्मा, के नाम लिए जा सकते हैं नब्बे के दशक में आमिर खान,
सलमान खान, संजय कपूर, अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी, सैफ़ अली ख़ान, अजय देवगन जैसे अभिनेताओं का तो वहीं अभिनेत्रियों में
जहू चावला, माधूरी दीक्षित, दिव्या भारती, बिपाशा बसु, करिश्मा कपूर, मनीषा कोइराला, काजोल, रानी मुखर्जी, प्रीति ज़िंटा जैसे कलाकारों के फिल्म हिट हो रहे थे... दशक की शुरुआत में तो प्रेम कहानियाँ जैसे 'दिल', 'दीवाना', 'बेटा', 'हम आपके हैं कौन', 'बाजीगर',
'खुदा गवाह', 'फूल और काँटे' और 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' जैसे यादगार फिल्में बनीं। इसके साथ ही हिंसक फिल्में जैसे 'घायल', 'अग्निपथ', 'थानेदार',
'हम', 'अंगार', 'नरसिम्हा',
'तहलका', 'विश्वात्मा', 'खलनायक', 'तिरंगा' और 'क्रांतिवीर' जैसी फिल्में भी बनीं.. दशक के दूसरे
हिस्से में आतंकवाद पर कुछ सराहनीय फिल्में बनीं। साथ ही इस हिस्से में उदारीकरण
की वजह से हो रहे सामाजिक परिवर्तन भी फिल्मों में नजर आने लगे... 90 के दशक के मध्य में 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे',
'रंगीला', 'कुछ-कुछ होता है', 'आ अब लौट चलें' और 'प्यार तो
होना ही था' जैसी फिल्में बनीं, जिनमें
आने वाले दौर की फिल्मों की झलक नजर आने लगी।..
Economics
स्वतंत्रता के बाद भारत को एक बिखरी अर्थव्यवस्था और चौंकाने वाली
गरीबी का सामना करना पड़ा... फिलहाल भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है औऱ क्षेत्रफल
की दृष्टि से विश्व में सातवें स्थान पर है, आजादी के बाद बेडिय़ां टूटते ही देश
के उद्यमी ऊंची उड़ान भरने लगे.. खुली अर्थव्यवस्था की नीति ने हर उद्योग को विकास
की तेज रफ्तार दी.. इसमें चाहे छत्तीसगढ़ का स्टील उद्योग हो या फिर पंजाब का
साइकिल उद्योग.. ऐसे ही दूसरे आर्थिक केंद्र जैसे राजस्थान का जेम्स एंड ज्वैलरी
उद्योग और मध्य प्रदेश का इंजीनियरिंग उद्योग विकसित होते गए और अर्थव्यवस्था की
तेज रफ्तार में योगदान देते गए.. भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने में बैकिंग उद्योग
का योगदान भी कम नहीं है... जब उद्योगों का उत्पादन बढ़ा तो इनके व्यापारिक केंद्र
भी विकसित हुए.. दिल्ली के चांदनी चौक व सदर बाजार और भोपाल के चौक बाजारों की
आर्थिक गतिविधियां भी तेज हुईं.. आम लोगों को अर्थव्यवस्था के तेज विकास से आर्थिक
आजादी यानि आय में बढ़ोतरी औऱ बेहतर जीवन-यापन मिली....भारत एक समय मे सोने की चिडिया कहलाता था। आर्थिक
इतिहासकार एंगस मैडिसन के अनुसार पहली सदी से लेकर दसवीं सदी तक भारत की
अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी.. ब्रिटिश काल में भारत की
अर्थव्यवस्था का जमकर शोषण और दोहन हुआ जिसके फलस्वरूप 1947 में आज़ादी के समय में
भारतीय अर्थव्यवस्था अपने सुनहरी इतिहास का एक खंडहर मात्र रह गई.. आज़ादी के बाद से भारत का झुकाव समाजवादी
प्रणाली की ओर रहा। सार्वजनिक उद्योगों तथा केंद्रीय आयोजन को बढ़ावा दिया गया। ऐतिहासिक रूप से भारत एक बहुत विकसित आर्थिक
व्यवस्था थी जिसके विश्व के अन्य भागों के साथ मजबूत व्यापारिक संबंध थे..
ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान अंग्रेज भारत से सस्ती दरों पर कच्ची सामग्री खरीदा
करते थे और तैयार माल भारतीय बाजारों में सामान्य मूल्य से कहीं अधिक उच्चतर
कीमत पर बेचा जाता था जिसके परिणामस्वरूप स्रोतों का द्धिमार्गी ह्रास होता था..
1947 में भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अर्थव्यवस्था की पुननिर्माण
प्रक्रिया प्रारंभ हुई.. इस उद्देश्य से विभिन्न नीतियां और योजनाऍं बनाई
गयीं और पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से कार्यान्वित की गयी..1947 में भारत
दुनिया के निर्धनतम देशों में शुमार था। 1950 में देश की अर्थव्यवस्था करीब 9,370
करोड़ रुपये की थी। आज भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी
अर्थव्यवस्था बन गई है। इतने तेज विकास का श्रेय आम भारतीयों की लगनशीलता और सरकार
की दूरदर्शी नीतियों को ही जाता है..सबसे पहले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल
नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की राह पर चलते हुए बड़े उद्योग और संस्थान स्थापित
किए और उन्हें आधुनिक भारत के मंदिर की संज्ञा दी। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था के
तेज विकास का मजबूत आधार मिला। तत्पश्चात सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री
इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके बैंकिंग सेवा और वित्तीय संसाधन आम
भारतीयों तक पहुंचने का रास्ता खोल दिया। साठ के दशक की हरित क्रांति ने देश को
खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाकर आयात की जरूरत को कम कर दिया।लेकिन लाइसेंस
राज, परमिट और कोटा प्रणाली अर्थव्यवस्था के विकास के लिए बाधक साबित होने
लगे.. 1950 के दशक से, कृषि में प्रगति कुछ हद तक स्थिर रही है। 20 वीं
शताब्दी की पहली छमाही में इस क्षेत्र की वृद्धि दर लगभग 1
प्रतिशत हुई। स्वतंत्रता के बाद के युग के दौरान, विकास दर
में प्रति वर्ष 2.6 प्रतिशत की कमी आई थी। भारत में कृषि
उत्पादन के लिए, कृषि उत्पादन में वृद्धि और अच्छी उपज वाली
फसल की किस्मों की शुरूआत की गई। इस क्षेत्र में आयातित अनाज पर निर्भरता समाप्त
करने का प्रबंध किया गया। यहाँ उपज और संरचनात्मक परिवर्तन दोनों के संदर्भ में
प्रगति हुई है। देश की आजादी के सुनहरे दिनों को जब भी याद किया
जाएगा तो जिक्र इस बात का भी होगा कि ठीक 72 साल पहले भारत को न सिर्फ अंग्रेजों
के चंगुल से मुक्ति मिली थी बल्कि देश को वो आजादी भी मयस्सर हुई जिसने भारत के
अर्थशास्त्र को वह दिशा भी देने का प्रयास किया जिसके जरिए मुकम्मल भारत का सपना
बुना जाना था... जैसे-जैसे भारत नित नई ऊंचाइयों को छूता रहा देश की अर्थव्यस्था
ने भी समय-समय पर काफी सारे उतार चढ़ाव देखे... देश की अर्थव्यवस्था ने एक ओर जहां
खुशहाली का मौसम देखा तो दूसरी ओर उसने आर्थिक संकट के उस पतझड़ का भी सामना किया
जिसने देश के खजाने को गिरवी रखने के हालात पैदा कर दिए... अगर 70 के दशक की
भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास क्रम को देखे तो.. स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत
राजनैतिक नेतृत्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती देश का सामाजिक एवं आर्थिक पुनर्निर्माण
एवं विकास करने की थी.. भारत की 80 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या की आजीविका कृषि
पर निर्भर होने के कारण कृषि को आर्थिक विकास के तौर पर देखा जाने लगा... यह वह
दौर था जब देश की अर्थव्यस्था की रीढ़ कृषि और उद्योगों पर टिकी हुई थी...उनदिनों
में अर्थव्यवस्था काफी हद तक सोवियत रूस से प्रेरित थी.. योजना आयोग सरीखी
केंद्रीयकृत इकाईयों का गठन किया गया था जिसका जिम्मा सौपा गया था कि वो अहम
परियोजनाओं के लिए खर्चे की अनुमानित राशि को निकालकर उसे सही तरीके से आवंटित
करने का काम करेगा.. इस दौर में सभी तरह के काम सरकार द्वारा किए जाते थे, ये उस दौर के लिहाज से अच्छे तो
नहीं, लेकिन सराहनीय थे। क्योंकि विश्व स्तरीय IITs,
AIIMS खोले जा चुके थे... 70 के दशक में बैंकों का राष्ट्रीयकरण
किया जा चुका था.. हलांकि 70 के दशक में लाइसेंस राज के चलते भारत में व्यापार
करना मुश्किल था। विदेशी कंपनियां भारत के बड़े बाजार में दस्तक देने से कतराती
थीं.. जिसका परिणाम यह होता था कि नागरिकों के पास उस तरह के विकल्प नहीं हुआ करते
है जैसे कि आज हम लोगों के पास हैं.. इस दौर में दो तरह की क्रांतियां देखने को
मिली एक हरित क्रांति और दूसरी सफेद क्रांति। इसने भारत को सक्षम बनाने के साथ साथ
उसकी आयात निर्भरता को भी काफी हद तक कम कर दिया। भारत के लिए यह इस दौर की सबसे
बड़ी उपलब्धि थी..
यह वही दौर था जब जयप्रकाश नारायण ने जन
आंदोलन चलाया.. देश में आपातकाल लगा.. सन 1977 से 1984 का दौर पांचवीं पंचवर्षीय योजना का था इस दौरान
पेट्रोलियम मूल्यों में वृद्धि के कारण विश्व में आर्थिक संकट छाया हुआ था... जिसकी
वजह से भारत में खाद्यान्नों और उर्वरकों के मूल्य में तेजी से बढ़ोतरी हुई... आजादी
के बाद देश में औद्योगिक विकास की जो रफ्तार थी उसका आधार समाज में समाजवादी वितरण
और क्षेत्रीय विशमता को दूर होने लगा था... प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी सार्वजनिक
क्षेत्र के विकास पर जोर देने की कोशिश कर रही थी.... केन्द्र सरकार के साथ साथ
औद्योगिक उत्पादों में आत्मनिर्भर होने के लिए राज्य सरकारों ने सार्वजनिक क्षेत्र
में एक के बाद एक कई महत्वपूर्ण संयंत्रों और इकाइयों के स्थापना किये... लेकिन अर्थव्यवस्था
को बढाने और जनता को रोजगार देने में सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों ने निराशाजनक
भूमिका निभा रही थी नतीजतन औद्योगिक विकास दर गिरती रही और विदेशी मुद्रा की तेजी
ने गंभीर बीमारी का रूप ले लिया.. शहरी श्रमिक वर्ग की संख्या जिस रफ्तार से बढ़ी
उस रफ्तार से रोजगार के अवसर पैदा नहीं हुए और ग्रामीण बेरोजगारों की हालात दिन-ब-दिन
और खराब होने लगे.... 1980 में ग्रामीण
भारत के लोगों के प्रति व्यक्ति आमदनी 1960 के स्तर पर ही रही.. 1977 से 1987 तक
प्रति व्यक्ति आय में सिर्फ 50 प्रतिशत की वृद्धि हो पाई.. उन दिनों सरकार द्वारा
गरीबी हटाओ का नारा दिया जा रहा था.. हर बड़ा नेता हर साल के बजट में गरीबी हटाओ
का बार बार उल्लेख होता रहा फिर भी सरकारें उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पा रही थी.. इंदिरा
गांधी के बाद कुछ दिनों के लिए आई जनता सरकर ने औद्योगिक विकास के लिए कांग्रेस
सरकारों की नीतियों में बदलाव किया, जिससे देश के औद्योगिक विकास की गति और कम हो गई,
क्योंकि देश में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था... 1980 में जब
दूसरी बार इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी तब उन्होंने कुछ आर्थिक बदलाव को लेकर कई
अहम और नीतिगत फैसला किए... इन्दिरा गांधी ने निजी निवेश को बढ़ावा दिया, लाइसेंस की प्रक्रिया आसान बनाई और विदेशो से तकनीक आयात करने की अनुमति
दी... जिसका नतीजा आटोमोटिव इंडस्ट्री, सीमेंट, कपड़ा, चीनीमिलों जैसे उद्योगों का आधुनिकीकरण हुआ और
उत्पादन क्षमता में गुणात्मक सुधार हुआ.. इस दशक में भारत ने अन्तरराष्ट्रीय बाजार
में भी दस्तक देनी शुरू कर दी थी.. स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया, कोल इंडिया लिमिटेड, इंडियन आयल कारपोरेशन लिमिटेड,
एनटीपीसी लिमिटेड, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स
लिमिटेड.. जैसी कंपनियों ने अपना प्रदर्शन शुरू कर दिया था जैसे-जैसे भारत नित नई ऊंचाइयों को छूता रहा था देश की अर्थव्यस्था ने
भी समय-समय पर काफी सारे उतार चढ़ाव देखे गए... देश की अर्थव्यवस्था ने एक ओर जहां
खुशहाली का मौसम देखा तो दूसरी ओर उसने आर्थिक संकट के उस पतझड़ का भी सामना किया
जिसने देश के खजाने को गिरवी रखने के हालात पैदा कर दिए... 1987 से 1990 के बीच
प्रधानमंत्री राजीव गांधीजी ने औद्योगिक सुधारों के लिए जो नीतिगत बदलाव किए उसका
नतीजा यह हुआ कि इन दिनों में में भारतीय औद्योगिक विकास दर 7.8 प्रतिशत रही, उत्पादन क्षेत्र की वृद्धि दर 7.6 प्रतिशत और खनन
क्षेत्र की वृद्धि दर 8.4 प्रतिशत रही.. 1984 में जब राजीव गांधी ने सत्ता संभाली
तो औद्योगिक क्षेत्र में सुधारों को लेकर उन्होंने नारा दिया था 21वीं सदी के भारत
के निर्माण का... उन्होंने सूचना एवं प्रौद्योगिकी और देश में कम्प्यूटर को बढ़ावा
दिया.. तात्कालिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की ही देन है कि आईटी क्षेत्र में भारत
का दबदबा दुनिया भर में कायम है.. हमारा विदेशी मुद्रा भंडार साल 1991 के आस पास
अब तक के सबसे खराब हालात में था और इसी वजह से तात्कालीन वित्तमंत्री को इस मजबूर
हालात में देश की अर्थव्यवस्था के द्वार सभी के लिए खोलने पड़े थे.. साल 1991 के
आर्थिक संकट के बाद देश की अर्थव्यवस्था ग्लोबलाइज हो गई। यह विश्व के लिए एक अहम
बदलाव था। भारत में अवसरों के द्वार खोले गए.. भारत में बाजारों के द्वार खुलने के
बाद काफी सारी कंपनियों ने भारतीय बाजारों में दस्तक और अपनी पकड़ बनाने की कोशिश
की क्योंकि लोगों को भारत के विशाल बाजार में अपार संभावनाएं दिख रही थीं.. इस दौर
में विदेशों में बसने, लाखों के पैकेज़ की नौकरी, हवाई यात्राएं, मंहगी गाडियाँ इत्यादि नौ जवानों के सपने बन गए..
Sports
आजादी
के बाद देश हर क्षेत्र में आगे बढ़ा और खेल भी इससे अछूता नहीं रहा. वैसे तो खेल
जगत में तमाम ऐसे मौके आए जब हमारे जांबाज खिलाड़ियों ने देश का सिर गर्व से ऊंचा
किया लेकिन कुछ ऐसे पल रहे जब पूरा देश मिलकर जश्न में डूबा. हॉकी में सोने की चमक
भारतीय हॉकी टीम आजादी से पहले ही परचम लहरा चुकी थी. आजादी से पहले ही ओलंपिक
खेलों में भारतीय हॉकी टीम ने 'गोल्डन' हैट्रिक मारी थी. आजादी के बाद भी भारतीय
हॉकी ने लगातार तीन ओलंपिक खेलों में गोल्ड मेडल जीते. 1960 में रोम ओलंपिक में
भारत खाते में सिल्वर आया लेकिन 1964 में उसने फिर से 'सोने'
का गोल दागा... केदार जाधव ने दिलाया ओलंपिक का पहला व्यक्तिगत मेडल..
पहलवान केदार जाधव ने ओलंपिक में भारत को पहला व्यक्तिगत गोल्ड मेडल दिलाया था.
उन्होंने 1952 में भारत को कुश्ती में ब्रॉन्ज मेडल दिलाया. आजादी के पांच साल बाद
मिला यह कांसे का तमगा बहुत खास था. कुश्ती में हाथ आजमाने के बाद जाधव पुलिस
फोर्स में सब-इंस्पेक्टर के तौर पर काम करने लगे. भारत
ने आजादी मिलने के बाद जिस तरह शिक्षा, तकनीकी, उद्योग, अंतरिक्ष आदि
क्षेत्रों में प्रगति के नए सोपान स्थापित किए हैं, उसी तर्ज
पर खेल के मैदान पर भी भारतीय खिलाड़ियों ने पूरी दुनिया में अपनी श्रेष्ठता साबित
की है। भारत की इस खेल यात्रा का अतीत बेहद गौरवशाली रहा है और इसी अतीत से प्रेरणा
लेकर वर्तमान ने खुद को सजाया-सँवारा है..
बेशक 1947 के बाद पहली बार 2008 के बीजिंग ओलिम्पिक खेलों में भारतीय हॉकी
नजर नहीं आई, लेकिन उससे पहले के सालों में भारतीय खिलाड़ियों
ने शानदार प्रदर्शन किया है। आजादी मिलने के बाद पूरे देश में जोश-जज्बा था। पहली
बार भारतीय हॉकी टीम ने स्वतंत्र देश के रूप में 1948 के लंदन ओलिम्पिक में शिरकत
की। आज की पीढ़ी यह जानकर ताज्जुब करेगी कि इस टीम का नेतृत्व इंदौर के समीप महू के
किशनलाल ने किया था.. जिन अंग्रेजों ने
भारत को गुलाम बनाकर रखा था, उसी अंग्रेज टीम को उसकी ही
धरती पर भारत ने हराकर स्वर्ण पदक हासिल किया था। हॉकी की यह ओलिम्पिक स्वर्णिम
सफलता 1952 (हेलसिंकी) और 1956 (हेलसिंकी) तक कायम रही। 1960 रोम ओलिम्पिक में
भारत ने काँस्य पदक जीता, जबकि 1964 के टोकियो ओलिम्पिक में
पुन: स्वर्ण पदक अर्जित किया। 12 वर्ष के अंतराल के बाद लन्दन में 1948
में पुन: ओलम्पिक खेलों का आयोजन हुआ। इसमें भारत ने भी भाग लिया।
भारत ने फिर हाकी में नाम कमाया और स्वर्ण पदक जीता। 1952 में
हेलसिंकी में और फिर 1965 में मेलबोर्न में हुए ओलम्पिक
खेलों में भारतीय हाकी टीम ने स्वर्ण पदक जीते। 1952 में
हेलसिंकी में आयोजित 15वें ओलम्पिक में भारत ने हाकी के
अलावा जिमनास्टिक, फुटबाल, मुक्केबाजी,
भारोत्तोलन और तैराकी में भी भाग लिया था। इसमें कुश्ती में भारत को
कांस्य पदक मिला।1956 में आयोजित 16 वें
ओलम्पिक में भी भारत ने अनेक प्रतियोगिताओं में भाग लिया। कुश्ती के अलावा हाकी
में स्वर्ण पदक जीतने के साथ-साथ फुटबाल में भी भारत ने अच्छा खासा प्रदर्शन किया।
पर फुटबाल की निर्णायक प्रतियोगिता में वह युगोस्लाविया से हार गया। अन्य खेलों
में उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिली।17वें ओलम्पिक 1960 में
रोम में हुए। इसमें भारत हाकी प्रतियोगिता में हार गया। दूसरी ओर 25 वर्षीय भारतीय धावक मिल्खा सिंह ने 400 मीटर की दौड़
में वि·श्व कीर्तिमान स्थापित किया। उन्हें इस प्रदर्शन के
बाद "उड़न सिख' की उपाधि दी गई। तत्पश्चात् टोकियो में 1964 में आयोजित
ओलम्पिक खेलों में भारत ने हाकी में फिर विजय प्राप्त की और स्वर्ण पदक जीता। इसी
ओलम्पिक में गुरुबचन सिंह ने 100 मीटर की दौड़ में पांचवा
स्थान प्राप्त किया। लेकिन मैक्सिको में 1968 में आयोजित 19वें ओलम्पिक खेलों में भारत हाकी में हार गया। उसके बाद हाकी में जो पराजय
का सिलसिला प्रारंभ हुआ वह चलता रहा।
भारत
ने आजादी मिलने के बाद जिस तरह शिक्षा, तकनीकी, उद्योग, अंतरिक्ष जैसे
क्षेत्रों में प्रगति के नए सोपान स्थापित किए हैं, उसी तर्ज
पर खेल के मैदान पर भी भारतीय खिलाड़ियों ने पूरी दुनिया में अपनी श्रेष्ठता साबित
की... भारत में खेल यात्रा का अतीत बेहद गौरवशाली तो नहीं रहा पर अतीत से प्रेरणा
लेकर वर्तमान ने खुद को जरूर सजाया-सँवारा..
हलांकि 70 के दशक में भारत दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले थोड़ा पिछड़ा
हुआ था... इसकी वजह रही खेलों के प्रति हमारी उदासीनता या फिर सुविधाओं का अभाव..
लेकिन लाख अभाव के बावजूद रामनाथन कृष्णन, रमेश कृष्णन, विजय
अमृतराज, आनंद
अमृतराज जैसे दिग्गजों ने देश में टेनिस की मजबूत नींव रखी, जिस पर बाद में महेश भूपति और लिएंडर पेस ने महल खड़ा
किया.. हॉकी की बात करें तो 1975 में भारत विश्व कप हॉकी के फाइनल में पाकिस्तान को
2-1 से हराकर विश्व विजेता बना.. माइकल फरेरा ने 70 के दशक में विश्व बिलियर्ड्स
चैंपियनशिप जीत कर नया किर्तिमान बनाया.. मुक्केबाज़ी में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का गौरव बढ़ने वाले
मुक्केबाज़ पदम् बहादुर माला 1962 में जकार्ता में हुए एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक
जीतने वाले पहले भारतीय बने... 60 और 70 के दशक में हवा सिंह ने अपनी अलग ही पहचान
बनाई और 1961 से 1972 तक लगातार राष्ट्रीय विजेता रहे... हवा सिंह 1966 और 1970 के
एशिया खेलों में स्वर्ण पदक विजेता भी रहे.. क्रिकेट की बात करें तो शुरू से ही भारत
में क्रिकेट बस एक खेल ही नहीं बल्कि एक धर्म माना जाता हैं... सालों से क्रिकेट
में भारतीय टीम की एक लम्बी विरासत रही है.. 70 के दशक में विदेशी धरती पर टीम
इंडिया ने इंग्लैंड में पहली टेस्ट सीरीज 1971
में जीती थी... अजीत वाडेकर की कप्तानी में भारतीय टीम ने इंग्लैंड को 1-0 से हराया था. जो भारतीय क्रिकेट के लिए एक नए अध्याय की
शुरुआत थी..
भारत
ने आजादी मिलने के बाद जिस तरह शिक्षा, तकनीकी, उद्योग, अंतरिक्ष जैसे
क्षेत्रों में प्रगति के नए सोपान स्थापित किए हैं, उसी तर्ज
पर खेल के मैदान पर भी भारतीय खिलाड़ियों ने पूरी दुनिया में अपनी श्रेष्ठता साबित
की... भारत में खेल यात्रा का अतीत बेहद गौरवशाली तो नहीं रहा पर अतीत से प्रेरणा
लेकर वर्तमान ने खुद को जरूर सजाया-सँवारा..
हलांकि 70 के दशक में भारत दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले थोड़ा पिछड़ा
हुआ था... इसकी वजह रही खेलों के प्रति हमारी उदासीनता या फिर सुविधाओं का अभाव..
लेकिन लाख अभाव के बावजूद रामनाथन कृष्णन, रमेश कृष्णन, विजय
अमृतराज, आनंद
अमृतराज जैसे दिग्गजों ने देश में टेनिस की मजबूत नींव रखी, जिस पर बाद में महेश भूपति और लिएंडर पेस ने महल खड़ा
किया.. हॉकी की बात करें तो 1975 में भारत विश्व कप हॉकी के फाइनल में पाकिस्तान को
2-1 से हराकर विश्व विजेता बना.. माइकल फरेरा ने 70 के दशक में विश्व बिलियर्ड्स
चैंपियनशिप जीत कर नया किर्तिमान बनाया.. मुक्केबाज़ी में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का गौरव बढ़ने वाले
मुक्केबाज़ पदम् बहादुर माला 1962 में जकार्ता में हुए एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक
जीतने वाले पहले भारतीय बने... 60 और 70 के दशक में हवा सिंह ने अपनी अलग ही पहचान
बनाई और 1961 से 1972 तक लगातार राष्ट्रीय विजेता रहे... हवा सिंह 1966 और 1970 के
एशिया खेलों में स्वर्ण पदक विजेता भी रहे.. क्रिकेट की बात करें तो शुरू से ही भारत
में क्रिकेट बस एक खेल ही नहीं बल्कि एक धर्म माना जाता हैं... सालों से क्रिकेट
में भारतीय टीम की एक लम्बी विरासत रही है.. 70 के दशक में विदेशी धरती पर टीम
इंडिया ने इंग्लैंड में पहली टेस्ट सीरीज 1971
में जीती थी... अजीत वाडेकर की कप्तानी में भारतीय टीम ने इंग्लैंड को 1-0 से हराया था. जो भारतीय क्रिकेट के लिए एक नए अध्याय की
शुरुआत थी..
देश में आपातकाल की घोषणा, फिर चुनाव में कांग्रेस की सरकार का केंद्र में पहली बार पतन और फिर
अस्थिर राजनीतिक दौर के बाद फिर से कांग्रेस के सत्ता में आने से एक तरह राजनीतिक
उथल-पुथल का दौर समाप्त हो चला था.. वहीं दूसरी तरफ 1983 में
कपिल देव की नेतृत्व वाली भारतीय क्रिकेट टीम ने लॉर्ड्स के ऐतिहासिक मैदान पर
वेस्टइंडीज को हराकर विश्व विजेता बन गया... कपिल की सेना ने विश्व कप जीतकर
भारतीय खेल जगत में 'क्रिकेट क्रांति' का
सूत्रपात कर दिया... विश्व कप के बाद ही क्रिकेट का खेल स्टेडियम से गुजरते हुए
गली-गली तक पहुँच गया.. 1987 में भारत में जब रिलायंस विश्व
कप आयोजित किया गया, तब जगमोहन डालमिया नाम का एक ऐसा व्यक्तित्व
सामने आया, जिसने क्रिकेट का व्यवसायीकरण कर क्रिकेट में
पैसों की बारिश कर दी... इन्हीं दिनो में सुनील गावस्कर ने 1986-87 सीजन में पाकिस्तान के खिलाफ टेस्ट क्रिकेट में 10,000 रन पूरे किए थे. यह पहला मौका था जब दुनिया का कोई बल्लेबाज टेस्ट
क्रिकेट में 10,000 के आंकड़े तक पहुंचा था. प्रकाश पदुकोण
भारत के पहले विश्वस्तरीय शटलर बने जो 70 के दशक के अंत में भारतीय बैडमिंटन का
दबदबा बनाये रखा.. 1980 में ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीतकर उन्होंने एक
अलग पहचान बनाई और फिर 1983 में आईबीएफ विश्व चैंपियनशिप में कांस्य पदक 1981 के
विश्वकप में पुरुष एकल का खिताब भी जीतने में सफल रहे... अपनी पीढ़ी के सबसे
प्रभावशाली खिलाड़ियों में से एक सेठी 1980 के दशक 3 बार विश्व एमेच्योर बिलियर्ड्स
चैंपियन रहे.. पीटी ऊषा 80 के दशक में भारतीय एथलेटिक्स की 'गोल्डन गर्ल' बन गई.. " पी टी उषा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन लॉस
एंजिल्स में 1984 के ओलंपिक में आया था जब वह 400 मीटर दौड़ में चौथे स्थान पर रही
और सेकंड के सौवें भाग से कांस्य पदक जीतते जीतते रह गयी। 80 के दशक में, शाइनी विल्सन और एम डी वाल्साम्मा ने एशियाई
ट्रैक और फील्ड मुकाबले में अपना लोहा मनवाया.. नौवें एशियाई खेल 19 नवंबर से चार
दिसंबर 1982 के बीच नई दिल्ली में आयोजित हुए... 33 देशों के 3411 एथलीट इन खेलों
में शामिल हुए थे... इन खेलों की तैयारी में भारत में बड़े पैमाने पर रंगीन
टैलीविजन का प्रसार हुआ। इन खेलों का शुभंकर अप्पू नाम का हाथी था.. 90 के दशक में एक ओर जहां देश में शिक्षा, तकनीकी,
उद्योग को बढ़ावा मिल रहा था.. वहीं दूसरी तरफ भारतीय क्रिकेट में
एक चमत्कारी प्रतिभा सचिन तेंदुलकर का अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण हुआ...
सचिन तेंदुलकर ने अपना पहला टेस्ट मैच नवंबर 1989 में पाकिस्तान के खिलाफ कराची
में खेला... 90 के दशक में वनडे क्रिकेट की चमक दमक ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को
जहां आश्चर्यचकित कर दिया.. वहीं इन्ही दिनों में मैच फिक्सिंग ने क्रिकेट के
साफ-सुथरी छवि को धूमिल कर दिया... 90 के दशक में भारत का एक ओर स्टार दुनिया को
मात देने में लगा था.. वह स्टार है ग्रेंडमास्टर विश्वनाथन आनंद.. आनंद ने पहली
बार 1987 में भारत के पहले ग्रेंडमास्टर बने थे... बैडमिंटन की दुनिया में पुलेला
गोपीचंद इतिहास बना रहे थे तो वहीं मधुमिता बिष्ट देश की शीर्ष महिला शटलर बनके
उभरी.. कॉमनवेल्थ और एशियाई खेलों की पदक विजेता अपर्णा पोपट ने 90 के दशक में एक
अलग पहचान बनाई... महिला निशानेबाजों की बात करें तो अंजली वेदपाठक 1990 के दशक
में भारत की अग्रणी शूटर हुआ करती थी। वेदपाठक ने एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों में
कई पदक जीते.. ओलंपिक में मलेश्वरी का मैजिक वेटलिफ्टर कर्णम मलेश्वरी पहली ऐसी
महिला एथलीट थीं जिन्होंने ओलंपिक में मेडल जीता. मलेश्वरी को 1994-94 में उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित किया गया और 1995-96 में उन्हें खेल रत्न से नवाजा गया... 1990 के दशक में इंडियन एक्सप्रेस'
पेस-भूपति की जोड़ी ने धमाल मचाया. 1999 में
इन दोनों ने मिलकर विंबलडन और फ्रेंच ओपन में खिताब जीता... यह भारत की पहली ऐसी
जोड़ी थी जिसने टेनिस में ग्रैंड स्लैम खिताब जीता था.
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