सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

अशफाकुल्ला खान

अशफाकुल्ला खान का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था. उनके पिता शफीक उल्लाह खान पठान परिवार से संबंध रखते थे और उनका ज्यादातर परिवार मिलिट्री से जुड़ा हुआ था। उन दिनों अशफाकुल्ला खान के बहुत से रिश्तेदार पुलिस और ब्रिटिश कालीन भारत के सरकारी कार्यालयों में कार्यरत थे। उनकी माता मजहूर-उन-निसा बेगम खूबसूरत खबातीनों में गिनी जाती थीं। अपने चार भाइयो में अशफाकुल्ला सबसे छोटे थे। उनके बड़े भाई रियासत उल्लाह खान पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के सहकर्मी थे। जब मणिपुर की घटना के बाद बिस्मिल को भगोड़ा घोषित किया गया तब रियासत अपने छोटे भाई अश्फाक को बिस्मिल की बहादुरी के किस्से सुनाते थे। तभी से अश्फाक को बिस्मिल से मिलने की काफी इच्छा थी...  क्योंकि अश्फाक भी एक कवि थे और बिस्मिल भी एक कवि ही थे। 1920 में जब बिस्मिल शाहजहांपुर आये और जब उन्होंने स्वयं को व्यापार में वस्त कर लिया, तब अश्फाक ने कई बार उनसे मिलने की कोशिश की थी... लेकिन उस समय बिस्मिल ने कोई ध्यान नही दिया था.. 1922 में जब असहयोग आन्दोलन अभियान शुरू हुआ उन्हीं दिनों में बिस्मिल ने शाहजहाँपुर में लोगो को इस अभियान के बारे में बताने के लिये मीटिंग आयोजित की तब एक पब्लिक मीटिंग में अशफाकुल्ला की मुलाकात बिस्मिल से हुई थी और उन्होंने बिस्मिल को अपने परिचय भी दिया की वे अपने सहकर्मी के छोटे भाई है। उन्होंने बिस्मिल को यह भी बताया की वे अपने उपनाम हसरतसे कविताये भी लिखते है। असहयोग आन्दोलन के दौरान अशफाकुल्ला खान की मुलाकात राम प्रसाद बिस्मिल से रोज होने लगी और धीरे धीरे  अश्फाक और बिस्मिल अच्छे दोस्त बन गये। अश्फाक जब भी कुछ लिखते थे तो तुरंत बिस्मिल को जाकर दिखाते थे और बिस्मिल उनकी जांच कर के गलतियों को सुधारते भी थे। कई बाद तो बिस्मिल और अश्फाक के बीच कविताओ और शायरियो की जुगलबंदी भी होती थी, जिसे उर्दू भाषा में मुशायरा भी कहा जाता है.. अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमने वाले अशफाकुल्ला खान जंग-ए-आजादी के महानायक थे.. उनका नाम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख क्रांतिकारियों में शुमार है.. आजादी के इतिहास में बिस्मिल और अशफाक की हिन्दू-मुस्लिम एकता का बेजोड़ उदाहरण भी इतिहासकार बताते हैं.. रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां अपनी शायरी और कविताओं के लिए भी काफी फेमस थे.. एक ओर जहां रामप्रसाद बिस्मिल की शायरी 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,' आगे चलकर आजादी के दीवानों का पसंदीदा गीत बन बन गया वहीं दूसरी ओर अशफाक उल्ला खां की शायरी देशभक्ति में डूबी हुई रहती थी जैसे कि पढ़ने वाले के दिलों अंदर से झकझोर कर रख देती थीं... अशफाकुल्ला खान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे जिन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के साथ मिलकर अपने प्राणों को कुर्बान किया था। बिस्मिल और अश्फाक अच्छे दोस्त और उर्दू शायर थे। अशफाकुल्ला खान को लोग हसरत के नाम से भी जानते हैं...  20वीं शताब्दी में ब्रिटिश राज में अशफाकुल्ला को फ़ासी पर चढ़ाया गया था. हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के वे एक महत्वपूर्ण सेनानी थे...
जिस ब्रिटिश राज में सूरज कभी अस्त नहीं होता था उसी ब्रिटिश हुकूमत के सीने में नश्तर घोपने का काम आजादी के मतवालों ने 92 साल पहले 9 अगस्त 1925 को किया था.... आजादी की लड़ाई के पन्नों को जब भी पलटा जाता है तो काकोरी कांड जरूर याद किया जाता है... 9 अगस्त 1925 को क्रन्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकुल्ला खान समेत 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से सटे काकोरी में सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में लूट की वारदात को अंजाम देकर अंग्रेजी हुकूमतों की चूले हिला दी थीं... अशफाकुल्ला खान और क्रांतिकारियों साथियों का मानना था की केवल अहिंसा के बल पर हम भारत को आज़ादी नही दिलवा सकते.. क्रांतिकारी साथियों का मानना था की अंग्रेजों को हराने के लिये बम, पिस्तौल और दूसरे हथियारों का उपयोग करना बहुत जरूरी है.... इससे पहले हुआ असहयोग आंदोलन ज्यादा सफल नही हो सका था... और अब कोई नया आन्दोलन शुरू करने या छेड़ने के लिये क्रांतिकारियों को पैसे की भी जरुरत थी... तभी एक दिन जब पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ट्रेन से शाहजहांपुर से लखनऊ की यात्रा कर रहे थे तब उन्होंने देखा की हर एक स्टेशन मास्टर गार्ड को पैसो से भरा एक बैग दे रहा है और उस बैग को कैबिन में रखा जा रहा है... वह पैसे लखनऊ में हायर ब्रिटिश अधिकारी को दिए जाने वाले थे... तभी तुरंत बिस्मिल ने ब्रिटिश सरकार के उन पैसो को लूटने की योजना बनायीं और उन पैसो का इस्तेमाल भारत को 300 सालो तक लूटने वाले उन्ही ब्रिटिशो के खिलाफ आन्दोलन करने में लगाने की ठानी.... और यही काकोरी ट्रेन लूट की शुरुवात थी... रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक़उल्ला खां, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह समेत 10 क्रन्तिकारी इस ट्रेन में काकोरी स्टेशन से सवार हुए... ट्रेन जैसे ही काकोरी स्टेशन से आगे बढ़ी, बिस्मिल ने चेन खींच कर उसे रोक दिया... इसके बाद सभी क्रांतिकारियों ने ट्रेन में रखे सरकारी तिजोरी को उठाकर भाग गए...... ट्रेन लूट के बाद पुलिस ने 50 लोगों को गिरफ्तार किया... डेढ़ साल मुकदमा चलने के बाद पांच लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई. इसमें रामप्रसाद बिस्मिल को 17 दिसम्बर 1927 को फांसी की सजा दी गई जबकि अशफाक़उल्ला खां, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी और रोशन सिंह को 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दी गई... चंद्रशेखर आजाद को पुलिस फांसी की सजा नहीं दे सकी, क्योंकि 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों से लड़ते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए... अशफाक उल्ला खां काकोरी कांड के शहीदों में से एक थे... अशफाक उल्ला खां तो फैजाबाद में फांसी दी गई... वे बहुत खुशी के साथ कुरान शरीफ का बस्ता कंधे पर लटकाए हाजियों की भांति लवेककहते और कलाम पढ़ते फांसी के तख्ते के करीब पहुंचे... तख्ते का उन्होंने चुंबन किया और वहां मौजूद जनता से कहा, ‘मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं रंगे, मेरे ऊपर जो इल्जाम लगाया गया, वह गलत है. खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा  और फंदे पर झूल गए... उनका अंतिम गीत था.. तंग आकर हम भी उनके जुल्म से बेदाद से.. चल दिए सुए अदम जिंदाने फैजाबाद से.. अशफाक उल्ला खां की पार्थिव शरीर मालगाड़ी से शाहजहांपुर ले जाते समय गाड़ी लखनऊ बालामऊ स्टेशन पर रुकी... जहां पर एक साहब सूट-बूट में गाड़ी के अंदर आए और कहा, ‘हम शहीद-ए-आजम को देखना चाहते हैं... उन्होंने पार्थिव शरीर के दर्शन किए और कहा, ‘कफन बंद कर दो, मैं अभी आता हूं... यह साहब कोई और नहीं चन्द्रशेखर आजाद थे...


बात उस समय की है जब ब्रिटिश साम्राज्य मजबूती के सातवे आसमान पर था और उन्हें डराना बहुत जरुरी हो गया था.... फरवरी 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया, तब भारत के युवा वर्ग में जो निराशा उत्पन्न हुई उसका निराकरण काकोरी कांड ने ही किया था.. भारत के स्वाधीनता आंदोलन में काकोरी कांड की महत्वपूर्ण भूमिका रही है... क्योंकि काकोरी कांड ही वह घटना थी जिसके बाद देश में क्रांतिकारियों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगा था और वे पहले से ज्यादा लोकप्रिय होने लगे थे... काकोरी कांड के बाद आम जनता अंग्रेजी राज से मुक्ति के लिए क्रांतिकारियों की तरफ और भी ज्यादा उम्मीद से देखने लगी थी... इतिहास के मुताबिक काकोरी कांड के संबंध में जब एचआरए दल की बैठक हुई तो अशफाक उल्लाह खां ने ट्रेन डकैती का विरोध करते हुए कहा था किइस डकैती से हम सरकार को चुनौती तो अवश्य दे देंगे लेकिन यहीं से पार्टी का अंत प्रारंभ हो जाएगा... क्योंकि दल इतना सुसंगठित और दृढ़ नहीं है इसलिए अभी सरकार से सीधा मोर्चा लेना ठीक नहीं होगा.... लेकिन अंततः काकोरी में ट्रेन में डकैती डालने की योजना बहुमत से पास हो गई... और फिर घटना को अंजाम तक पहुंचा भी दिया गया... काकोरी कांड के बाद देश के कई हिस्सों में बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां हुई... हालांकि काकोरी ट्रेन डकैती में 10 आदमी ही शामिल थे, लेकिन 40 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया. अंग्रेजों की इस धरपकड़ से देश भर में काफी हलचल मच गई... जवाहरलाल नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि बड़े-बड़े लोगों ने जेल में क्रांतिकारियों से मुलाकात की और मुकदमा लड़ने में दिलचस्पी दिखाई... वे चाहते थे कि उनका मुकदमा सुप्रसिद्ध वकील गोविंद वल्लभ पंत लड़े... लेकिन उनकी फीस ज्यादा होने के कारण अतंतः यह मुकदमा कलकत्ता के बीके चौधरी ने लड़ा... काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा लगभग 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला... उस समय इस मुकदमे पर सरकार का 10 लाख रुपये खर्च हुआ था... 6 अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ जिसमें जज हेमिल्टन ने धारा 121ए, 120बी,  और 396 के तहत क्रांतिकारियों को सजाएं सुनाईं... इस मुकदमे में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी की सजा सुनाई गई... फांसी की सजा की खबर सुनते ही जनता आंदोलन पर उतारू हो गई... अदालत के फैसले के खिलाफ शचीन्द्रनाथ सान्याल और भूपेन्द्रनाथ सान्याल के अलावा सभी ने लखनऊ चीफ कोर्ट में अपील दायर की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ...




काकोरी कांड के बाद अशफाक शाहजहांपुर छोड़कर बनारस चले गए.. इसके बाद उन्होंने विदेश जाने की योजना बनाई.. इसके लिए वह दिल्ली आकर अपने एक पठान दोस्त से मिले, लेकिन उनके दोस्त ने दगा दे दिया और इनाम के लालच में आकर पुलिस को खबर कर दी.. फिर अंग्रेज सरकार डकैती का आरोप लगाकर अशफाक को फैजाबाद जेल में फांसी पर चढ़ा दिया.. इतिहासकारों के मुताबिक काकोरी कांड के बाद जब अशफाक को गिरफ्तार किया गया तो अंग्रेजों ने उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की और कहा कि यदि हिन्दुस्तान आजाद हो गया, तो उस पर हिन्दुओं का राज होगा और मुसलमानों को कुछ नहीं मिलेगा... इसके जवाब में अशफाक ने अंग्रेजों से कहा कि फूट डालकर शासन करने की चाल का उन पर कोई असर नहीं होगा और हिन्दुस्तान आजाद होकर रहेगा... उन्होंने कहा भारत अगर हिंदुओं की मां है तो हम मुस्लमान भी इसी मां के लाल हैं.. अशफाक ने अपने दोस्तों के खिलाफ गवाही देने से साफ इनकार कर दिया था.. बिस्मिल जब गोरखपुर जेल में कैद में थे तब उन्होंने दो दिन के अंदर अपनी पूरी आत्मकथा लिख दी थी.. 200 पन्नों की इस आत्मकथा में बिस्मिल ने अपने अजीज़ दोस्त अशफ़ाकउल्ला खां का भी जिक्र किया है.. राम प्रसाद बिस्मिल ने अशफ़ाकउल्ला खां को लेकर अपने जीवनी में लिखा है.. मुझे भलीभांति याद है, कि जब मैं बादशाही ऐलान के बाद शाहजहांपुर आया था, तो अशफ़ाकउल्ला खां से स्कूल में भेंट हुई थी.. अशफ़ाकउल्ला खां को मुझ से मिलने की बड़ी हार्दिक इच्छा थी। उसने मुझसे मैनपुरी षड्यन्त्र के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करनी चाही थी.. मैंने यह समझ कर कि एक स्कूल का मुसलमान विद्यार्थी मुझ से इस प्रकार की बातचीत क्यों करता है, उसकी बातों का उत्तर उपेक्षा की दृष्‍टि से दे दिया था। अशफ़ाकउल्ला खां एक सच्चे मुसलमान और सच्चे देशभक्‍त हैं.. राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा में अशफ़ाकउल्ला खां को लेकर लिखा है कि तुम बनावटी आदमी नहीं हो.. तुम्हारे दिल में मुल्क की खिदमत करने की ख्वाहिश थी। आखिर में तुम्हारी विजय हुई। तुम्हारी कोशिशों ने मेरे दिल में जगह पैदा कर ली। थोड़े दिनों में ही तुम मेरे छोटे भाई के समान हो गए थे, किन्तु छोटे भाई बनकर तुम्हें सन्तोष न हुआ। तुम समानता का अधिकार चाहते थे, तुम मित्र की श्रेणी में अपनी गणना चाहते थे। वही हुआ। तुम सच्चे मित्र बन गए।













बात अगर अशफाकउल्ला खां का हो तो प्रिय दोस्त रामप्रसाद बिस्मिल का जिक्र न हो यह संभव नहीं है... मुस्लिम लीग के बढ़ते प्रभाव और ब्रिटिश सरकार द्वारा उसे दी जा रही शह से हिंदू और मुसलमान एक दूसरे को संदेह की नजर से देखने लगे थे. मुसलमानों से उनकी देशभक्ति के सबूत मांगे जाते थे.... तब बिस्मिल और अशफाक की जोड़ी ने दोनों समुदायों में एक-दूसरे के लिए फैली भ्रांतियों को तोड़ने में बड़ी अहम भूमिका निभाई थी.. अपनी आत्मकथा में रामप्रसाद बिस्मिल ने सबसे अधिक अशफाक के बारे में ही लिखा है... बिस्मिल अपनी आत्मकथा में एक बहुत ही मजेदार घटना का जिक्र किया हैं... उस वक्त दोनों की दोस्ती की वजह से यह अफवाह थी कि अशफाक बिस्मिल के प्रभाव में आकर हिंदू बन सकते हैं... एक बार अशफाक बीमार हुए और वे बेहोश थे और उनके मुंह से राम-राम निकल रहा था... बिस्मिल इस घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं, ‘पास खड़े भाई-बंधुओं को आश्‍चर्य था कि 'राम', 'राम' कहता है... उस समय किसी मित्र का आगमन हुआ, जो 'राम' के भेद को जानते थे. तुरंत मैं बुलाया गया... मुझसे मिलने पर तुम्हें शांति हुई, तब सब लोग 'राम-राम' के भेद को समझे!.. रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा अशफाक का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘ हिंदू-मुस्लिम एकता ही हम लोगों की यादगार और अंतिम इच्छा है, चाहे वह कितनी कठिनता से क्यों न प्राप्‍त हो... तुम्हारी इस प्रकार की प्रवृत्ति को देखकर बहुतों को सन्देह होता था कि कहीं इस्लाम धर्म त्याग कर शुद्धि न करा ले लेकिन तुम्हारा हृदय तो किसी प्रकार अशुद्ध न था, फिर तुम शुद्धि किस वस्तु की कराते ? तुम्हारी इस प्रकार की प्रगति ने मेरे हृदय पर पूर्ण विजय पा ली। बहुधा मित्र मंडली में बात छिड़ती कि कहीं मुसलमान पर विश्‍वास करके धोखा न खाना। तुम्हारी जीत हुई, मुझमें तुममें कोई भेद न था.. सब को आश्‍चर्य था कि एक कट्टर आर्यसमाजी और मुसलमान का मेल कैसा? मैं मुसलमानों की शुद्धि करता था। आर्यसमाज मन्दिर में मेरा निवास था, किन्तु तुम इन बातों की किंचितमात्र चिन्ता न करते थे। मेरे कुछ साथी तुम्हें मुसलमान होने के कारण घृणा की दृष्‍टि से देखते थे, किन्तु तुम अपने निश्‍चय पर दृढ़ थे। मेरे पास आर्यसमाज मन्दिर में आते जाते थे। हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा होने पर, तुम्हारे मुहल्ले के सब कोई खुल्लमखुल्ला गालियां देते थे, काफिर के नाम से पुकारते थे, पर तुम कभी भी उनके विचारों से सहमत न हुए.. तुम एक सच्चे मुसलमान तथा सच्चे देशभक्‍त थे.. तुम ने स्वदेशभक्‍ति के भावों को भली भांति समझने के लिए ही हिन्दी का अच्छा अध्ययन किया.. 

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