रविवार, 1 अक्टूबर 2017

भीमराव अंबेडकर


वो ऐसे धर्म को मानते थे जिसमें स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा कायम हो... वो बुद्धि का विकास मानव के अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य मानते थे.. जिन्होंने नारा दिया था एक सुरक्षित सेना, एक सुरक्षित सीमा से बेहतर हैं.... वो कहते थे अपने भाग्य के बजाय अपनी मजबूती पर विश्वास करो... वो रात रातभर इसलिये जागते रहते थे क्‍योंकि उनका समाज सो रहा होता था... उनका मानना था जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं हांसिल कर लेते, कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है वो आपके किसी काम की नहीं.... जी हां बात डॉ. भीम राव अम्बेडकर की हो रही है जिन्होंने पूरी उम्र देश की अनुसूचित जातियों को हक दिलाने की बात की.. और अंत में दुखी होकर मरने से पहले धर्म बदल लिया... साल 1891.. उस समय भारत पर ब्रिटिश शासन था.. अंग्रेजी सेना में सूबेदार रामजी राव मालोजी सकपाल की पत्नी भीमाबाई ने 14 अप्रैल को अपनी 14 वीं संतान के रूप में एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया.. सूबेदार रामजी राव मालोजी के 13 बच्चों में से 4 ही केवल जीवित बचे.. रामजी राव जाति के महार थे.. वे गांव अम्बावडे, जिला रत्नागिरी, महाराष्ट्र के रहने वाले थे.. बाबा साहेब की मां भीमाबाई धार्मिक स्वाभाव की थी.. महाराष्ट्रीयन परम्परा के मुताबिक महार स्वामी ने बालक को आशीर्वाद दिया और मां भीमाबाई के नाम पर बच्चे का नाम भीम सकपाल रखा गया.. परिवार संबंधियों और मित्रजनों ने बच्चे के जन्म पर खूब खुशियां मनाई.. क्योंकि रामजी राव के बहुत से बच्चे जन्म लेने के बाद मृत्यु को प्रप्त हो गए थे.. बाबा साहेब अपने माता पिता की पांचवीं जीवित और सबसे छोटी संतान थे.. उनके दो भाई और दो बहने, मंजुला और तुलसी थीं.. घर में सबसे छोटे होने के कारण भीमराव सबके लाडले और दुलारे थे.. भीमराव अंबेडकर का जन्म महार जाति में हुआ था जिसे लोग अछूत और बेहद निचला वर्ग मानते थे.. बचपन में भीमराव अंबेडकर के परिवार के साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था लेकिन भीमराव के पिता हमेशा ही अपने बच्चों की शिक्षा पर जोर देते थे.. 1894 में भीमराव अंबेडकर के पिता रिटायर्ड हो गए और इसके दो साल बाद उनके मां की मृत्यु हो गई.. बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में की.. अपने सभी भाइयों और बहनों मे केवल अंबेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए.. बाबासाहब भीमराव अंबेडकर ने उच्च शिक्षा मुंबई यूनिवर्सिटी, कोलंबिया यूनिवर्सिटी और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में ली.. 1915 में उन्होंने समाजशास्त्र के साथ अर्थशास्त्र, इतिहास दर्शन, मानवकी और राजनीति शास्त्र से एमए किया और बड़ौदा के महाराजा से मिलने वाले 25 रुपए की स्कॉलरशिप पर पढ़ाई के लिए न्यूयॉर्क गए... 1917 में कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उनके शोध इवोल्यूशन ऑफ़ प्रोविन्शिअल फाइनान्स इन ब्रिटिश इंडियाके लिए उन्हें पीएचडी की डिग्री दी.. डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करने के बाद अंबेडकर पढ़ाई करने लंदन चले गए.. उन्होने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में क़ानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट शोध के लिए एडमिशन करवा लिया.. 1920 में बैरिस्टर की डिग्री मिली और 1922-23 में कुछ समय वह जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ़ बॉन में अर्थशास्त्र का अध्ययन करते रहे.. 1923 में लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स ने द प्रॉब्लम ऑफ़ रूपीपर डीएससी की डिग्री दी.. अगले साल स्कॉलरशिप ख़त्म होने से उन्हें मजबूरन देश वापस लौटना पड़ा.. वापस लौटकर बड़ौदा सेना सचिव पद पर काम करते हुए उन्हें फिर से भेदभाव का सामना करना पड़ा और नौकरी छोड़कर वह निजी ट्यूटर और अकाउंटेंट के रूप में काम करने लगे।

कम ही लोग जानते हैं कि लोकतंत्र में गहरी आस्था रखने वाले और भारतीय लोकतंत्र के बौद्धिक आधार स्तम्भों में एक बाबासाहब दो बार लोक सभा चुनाव लड़े थे.. हर महान व्यक्ति की तरह बाबासाहब को भी जीवन में विफलता का स्वाद चखना पड़ा था.. वो भी उस जनता के हाथों जिनके लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन न्योछावर कर दिया। बाबासाहब ने पहला चुनाव 1951-52 में लड़ा था। बाबासाहब बॉम्बे नार्थ सीट से उम्मीदवार थे। उन्होंने आल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडेरेशन नामक पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा था.. पहले चुनाव में बाबासाहब को कुल  123,576 वोट मिले थे.. उन्हें कुल मतदान का 17.3 प्रतिशत वोट हासिल हुआ था.. वो चौथे स्थान पर रहे थे. इस सीट से पहले स्थान पर इंडियन नेशनल कांग्रेस के गांधी विट्ठल बालकृष्ण रहे थे.. लोक सभा चुनाव में हार मिलने के बावजूद बाबासहाब को मेंबर ऑफ काउंसिल ऑफ स्टेट यानी की राज्य सभा के सदस्य चुने गए.. लेकिन कुछ ही साल बाद 1954 में हुए लोक सभा उप-चुनाव में बाबासाहब ने एक बार फिर किस्मत आजमायी लेकिन फिर उन्हें निराशा ही हाथ लगी.. हालांकि इस बार उनका प्रदर्शन पहले से बेहतर रहा.. बाबासाहब महाराष्ट्र के भंडारा लोक सभा सीट के लिए हुए उप-चुनाव के लिए खड़े हुए थे.. इस उप-चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के मेहता अशोक रंजीत्राम बाबा साहेब को मात दी थी... अपने विवादास्पद विचारों, और गांधी और कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद अंबेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व में आई तो उसने अंबेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया.. 29 अगस्त 1947 को अंबेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया..


बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर का जीवन संघर्ष और सफलता की ऐसी अद्भुत मिसाल है जो शायद ही कहीं और देखने को मिले.... इंडियन कास्ट सिस्टम की बुराइयों के बीच जन्मे बाबासाहेब ने बचपन से ही उपेक्षा और असमानता का आघात झेला..  उन्होंने अपनी असीम इच्छाशक्ति और मेहनत के बल पर एक आधुनिक भारत के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान दिया.. जहां तक उनके राजनीतिक रुझान का सवाल है तो उन्होंने पहली पार्टी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के नाम से बनायी और आखिर में जिस पार्टी की नींव उन्होंने रखी वह रिपब्लिकन पार्टी थी जिसका नाम पहले वे पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी रखना चाहते थे.. आंबेडकर एक लोकप्रिय नेता के साथ-साथ  अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक भी थे.. बाबा साहेब ने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और दलितों के खिलाफ सामाजिक भेद भाव के विरुद्ध अभियान चलाया.. श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया.. पहली बार 8 अगस्त, 1930 को एक सम्मेलन के दौरान अंबेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा... आज़ाद भारत की पहली सरकार में उन्हें कानून मंत्री बनाया गया। वह अर्थशास्त्री थे और बिजली पैदा करने और सिंचाई की सुविधा की पहली नदी घाटी परियोजना तैयार की थी। संविधान में उन्‍होंने महिलाओं को बड़ी संख्‍या में स्‍वाधीन बनाने के लिए हिंदू संहिता विधेयक भी तैयार किया था और जब संसद में यह बिल पास नहीं किया गया, तब उन्‍होंने कैबिनेट से इस्‍तीफा दे दिया.. एक वक्त ऐसा भी आया जब राजनेताओं का व्यवहार देखकर.. अपने हाथों से बनाई संविधान को  जला देने तक की बात कह डाली... उन्हें आभास हो गया था कि देश का पांच फ़ीसदी से भी कम आबादी वाला संभ्रांत तबका संविधान ही नहीं देश के लोकतंत्र को भी को हाईजैक कर लेगा और 95 फ़ीसदी तबके को उसका लाभ नहीं मिलेगा.. अंबेडकर ने दो सितंबर 1953 को राज्यसभा में चर्चा के दौरान कहा था, श्रीमान, मेरे मित्र कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया है.. परंतु मैं यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार हूं कि संविधान को जलाने वाला मैं पहला व्यक्ति होऊंगा... मुझे इसकी ज़रूरत नहीं.. यह किसी के लिए अच्छा नहीं है.. दो साल बाद, 19 मार्च 1955 को राज्यसभा में बोलते हुए बाबा साहेब ने कहा था.. हमने भगवान के रहने के लिए संविधान रूपी मंदिर बनाया है, परंतु भगवान आकर उसमें रहते, उससे पहले राक्षस आकर उसमें रहने लगा। ऐसे में मंदिर को तोड़ देने के अलावा चारा ही क्या है? हमने इसे असुरों के लिए तो नहीं, देवताओं के लिए बनाया है। मैं नहीं चाहता कि इस पर असुरों का आधिपत्य हो.. हम चाहते हैं इस पर देवों का अधिकार हो। यही कारण है कि मैंने कहा था कि मैं संविधान को जलाना पसंद करूंगा।

1940 के दशक के आखिर में जब बाबा साहेब भारतीय संविधान को बनाने में बेहद व्यस्त थे तभी स्वास्थ्य की जटिलताएं उभरनी शुरू हुईं.. नींद नहीं आती थी.. पैरों में न्यूरोपैथिक दर्द रहने लगा.. इंसुलिन और होम्योपैथिक दवाएं किसी हद तक ही राहत दे पाती थीं.. 1947 के आसपास बाबा साहेब पर डायबिटीज और ब्लड प्रेसर इस कदर हावी हुआ की डॉक्टरों द्वारा ने उन्हें गंभीरता से इलाज की सलाह दी गई.. इलाज के लिए उन्हें बंबई जाना पड़ा जहां डॉक्टर शारदा कबीर ने उनका इलाज शुरू किया.. उन दिनों कई बड़े डॉक्टरों ने सलाह दिया कि दवा के साथ साथ उन्हें अब ऐसे साथी की भी जरूरत है, जो न केवल कुशल गृहणी हो बल्कि उन्हें मेडिकल ज्ञान भी हो, ताकि उनकी केयर कर सके.. चूंकि डॉक्टर शारदा बेहद समर्पित तरीके से इलाज कर रही थीं लिहाजा वो उनके करीब भी आती गई.. डॉ शारदा बाबा साहेब के इतने करीब आ गई की 15 अप्रैल 1948 को दिल्ली स्थित अपने आवास में उनसे शादी कर ली... शादी के बाद डॉ. शारदा कबीर अपना नाम बदलकर सविता अंबेडकर रख लिया... डॉ. सविता पुणे के सभ्रांत मराठी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं.. ऐसे ब्राह्मण परिवार से, जिन्हें चितपावन ब्राह्मण कहा जाता था.. यानि सबसे कुलीन ब्राह्मण.. जब शादी हुई तो न केवल ब्राह्मण बल्कि दलितों का एक बड़ा वर्ग खासा कुपित था.. यहां तक की अंबेडकर के बेटे और नजदीकी रिश्तेदारों को भी ये शादी रास नहीं आई.. जिसका नतीजा परिवार के बीच खटास ताजिंदगी बनी रही.. अक्सर ये सवाल उठाया जाता है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जब दूसरी बार शादी की तो एक ब्राह्मण महिला से क्यों की.. इस पर खासी नाराजगी भी फैली थी.. विवाद भी हुआ था.. तमाम बातें कहीं गईं.. ब्राह्मणों ने अंबेडकर की दलित राजनीति और उनके विचारधारा पर ही सवाल खड़े कर दिए... एक वर्ग का कहना था कि इससे गलत तो कुछ हो ही नहीं सकता था.. अंबेडकर के निधन के बाद न केवल उनकी पत्नी सविता पर गंभीर आरोप लगाए गए बल्कि उनकी मौत का भी जिम्मेदार ठहराया गया.. निधन को कथित साजिश से जोड़कर देखा गया.. प्रधानमंत्री नेहरू ने मामले की जांच की मांग की गई। हालांकि जांच के बाद सविता जी को क्लीनचिट मिल गई.. विवादों को छोड़ दिया जाए तो कोई शक नहीं कि डॉक्टर सविता ने पूरी निष्ठा के साथ मरते दम तक अंबेडकर का ख्याल रखा.. बाबा साहेब के निधन के बाद बाबा साहेब के करीबियों ने जैसा व्यवहार किया, उससे वह खासी आहत हुईं.. 

पूरा देश जानता है कि भारतीय संविधान की रचना करने में डॉ. भीमराव अंबेडकर का योगदान सबसे अहम रहा। उन्होंने देश के संविधान के लिए जो अथक प्रयास किया उसके लिए हर कोई उनको सम्मान की नजर से देखता है, लेकिन कम ही लोग जानते होंगे कि उनकी शिक्षा कैसे हुई और उनका प्रारम्भिक जीवन कैसा रहा। आज हम आपको डॉ. भीमराव अंबेडकर की जिंदगी से जुड़े वो अनछुए पहलू बताएंगे जिनसे आप अंजान हैं।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें