सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

सावन महिना

देवो के देव महादेव के लिए कहा जाता है....कि उनकी कृपा अगर किसी पर हो जाए तो उसका जीवन सफल हो जाता है....वैसे तो तीनों लोक के स्वामी महादेव भोले हैं....और उनको भोलेनाथ भी कहा जाता है...लेकिन महादेव को खुश करना इतना आसान नहीं है...इसके लिए पूजा और तप करना पड़ता है....आदिकाल से लेकर अब तक कई कथाएं प्रचलित हैं....कि जिस पर भी भोलेनाथ की कृपा हुई...और उद्धार ही हुआ है...यूं तो महादेव की पूजा अर्चना कभी भी किसी भी दिन की जा सकती है....लेकिन जो भक्त सोमवार को भगवान भोलेनाथ का सच्चे मन से स्मरण करता है...उसके सारे कष्ट और पीड़ा समाप्त हो जाती है....सोमवार का दिन बेहद ही खास है....इस दिन अगर शिवलिंग को दूध दही जल से स्नान कराया जाए तो भोलेनाथ की कृपा बनी रहती है....लेकिन आम दिन से अलग सावन में सोमवार का महत्व ज्यादा होता है....सावन के महीने में पड़ने वाले सोमवार को बहुत पवित्र माना जाता है...सोमवार को केवल रात में ही भोजन करना चाहिए और शिव जी की उपासना करनी चाहिए। श्रावण सोमवार व्रत की विधि अन्य सोमवार व्रत की तरह ही होती है। भगवान भोलेनाथ के साथ पार्वती जी की पुष्प, धूप, दीप और जल से पूजा करनी चाहिए। इसके बाद भगवान शिव को तरह-तरह के नैवेद्य अर्पित करने चाहिए जैसे दूध, जल, कंद मूल आदि। सावन के प्रत्येक सोमवार को भगवान शिव को जल अवश्य अर्पित करना चाहिए। साथ ही भगवान शिव की प्रिय वस्तुएं जैसे भांग- धतुरा आदि उनकी पूजा में अवश्य रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
सावन का महीना जिसमें भगवान शंकर की कृपा से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। सावन के सोमवार की महिमा महाशिवरात्रि के बाद सबसे ज्यादा मानी जाती है .. पुराणों में भी  भगवान शंकर की पूजा के लिए सोमवार का दिन निर्धारित किया गया है।  सावन के महीने की ऐसी मान्यता है कि सावन का शुरुआत जिस सोमवार से होती है उसी दिन से  प्रबोधनी एकादशी  के प्रारंभ  से सृष्टि के पालन कर्ता भगवान विष्णु सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर अपने दिव्य भवन पाताललोक में विश्राम करने के लिए निकल जाते हैं ..और अपना सारा कार्यभार महादेव को सौंप देते है। भगवान शिव पार्वती के साथ पृथ्वी लोक पर विराजमान रहकर पृथ्वी वासियों के दुःख-दर्द को समझते है एवं उनकी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं, इसलिए सावन का महीना खास होता है। महादेव को श्रावण मास वर्ष का सबसे प्रिय महीना लगता है क्योंकि श्रावण मास में सबसे अधिक वर्षा होने के आसार रहते हैं, जो शिव के गर्म शरीर को ठंडक प्रदान करता है। भगवान शंकर ने स्वयं सनतकुमारों को सावन महीने की महिमा बताई है कि मेरे तीनों नेत्रों में सूर्य दाहिने, बांएं चन्द्र और अग्नि मध्य नेत्र है। हिन्दू कैलेण्डर में महीनों के नाम नक्षत्रों के आधार पर रखे गयें हैं। जैसे वर्ष का पहला माह चैत्र होता है, जो चित्रा नक्षत्र के आधार पर पड़ा है, उसी प्रकार श्रावण महीना श्रवण नक्षत्र के आधार पर रखा गया है। श्रवण नक्षत्र का स्वामी चन्द्र होता है। चन्द्र भगवान भोलेनाथ के मस्तक पर विराज मान है। जब सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करता है, तब सावन महीना प्रारम्भ होता है। सूर्य गर्म है एवं चन्द्र ठण्डक प्रदान करता है, इसलिए सूर्य के कर्क राशि में आने से झमाझम बारिश होती है। जिसके फलस्वरूप लोक कल्याण के लिए विष को ग्रहण करने वाले देवों के देव महादेव को ठण्डक व सुकून मिलता है। शायद यही कारण है कि शिव का सावन से इतना गहरा लगाव है।
पुराणों और धर्मग्रंथों में तो भोले बाबा की पूजा के लिए सावन के महीने की महिमा का महत्व बताया गया है। इस महीने में ही पार्वती ने शिव की घोर तपस्या की थी और शिव ने उन्हें दर्शन भी इसी माह में दिए थे। तब से भक्तों का विश्वास है कि इस महीने में शिवजी की तपस्या और पूजा पाठ से शिवजी जल्द प्रसन्न होते हैं और जीवन सफल बनाते हैं।एक बार सावन के महीने में अनेक ऋषि क्षिप्रा नदी में स्नान कर उज्जैन के महाकाल शिव की अर्चना करने हेतु एकत्र हुए। वह अभिमानी वेश्या भी अपने कुत्सित विचारों से ऋषियों को धर्मभ्रष्ट करने चल पड़ी। लेकिन वहां पहुंचने पर ऋषियों के तपबल के प्रभाव से उसके शरीर की सुगंध लुप्त हो गई। वह आश्चर्यचकित होकर अपने शरीर को देखने लगी। उसे लगा, उसका सौंदर्य भी नष्ट हो गया। उसकी बुद्धि परिवर्तित हो गई। उसका मन विषयों से हट गया और भक्ति मार्ग पर बढ़ने लगा। उसने अपने पापों के प्रायश्चित हेतु ऋषियों से उपाय पूछा, वे बोले- ‘तुमने सोलह श्रृंगारों के बल पर अनेक लोगों का धर्मभ्रष्ट किया, इस पाप से बचने के लिए तुम सोलह सोमवार व्रत करो और काशी में निवास करके भगवान शिव का पूजन करो।वेश्या ने ऐसा ही किया और अपने पापों का प्रायश्चित कर शिवलोक पहुंची। ऐसा माना जाता है कि सोलह सोमवार के व्रत से कन्याओं को सुंदर पति मिलते हैं तथा पुरुषों को सुंदर पत्नियां मिलती हैं। बारह महीनों में विशेष है श्रावण मास, इसमें शिव की पूजा करने से प्रायः सभी देवताओं की पूजा का फल मिल जाता है।
सावन में कांवड यात्रा का विशेष महत्व है लेकिन इसके पीछे की कहानी शायद ही आपको मालूम हो आइये आपको बताते है कि कांवड यात्रा की कहानी का श्रवण कुमार और भगवान राम के पिता राजा दशरथ से क्या जुड़ाव है
श्रवण कुमार बहुत ही सरल स्वभाव का व्यक्ति था... माता-पिता के लिए उसके मन में बहुत प्रेम एवम श्रद्धा थी वो दिन रात अपने माता-पिता की सेवा करता था . अपने माता पिता का बच्चो की तरह लालन पालन करता था . उसके माता पिता भी स्वयं को गौरवशाली महसूस करते थे श्रवण कुमार ने अपना पूरा जीवन, वृद्ध नेत्रहीन माता पिता की सेवा में लगा दिया . श्रवण कुमार के माता पिता ने कहा कि हम दोनों की आयु बहुत हो चुकी हैं , अब जीवन का कोई भरोसा नहीं हैं, किसी भी समय हमारी आँखे बंद हो सकती हैं ऐसे में हमारी एकमात्र इच्छा हैं, हम तीर्थ यात्रा करना चाहते हैं, क्या तुम हमारी यह इच्छा पूरी कर सकते हो ? श्रवण कुमार अपने माता-पिता के चरणों को पकड़ कर अत्यंत प्रसन्नता के साथ कहता हैंहाँ .श्रवण अपने माता पिता को तीर्थ करवाने हेतु एक कावड़ तैयार करता हैं जिसमे एक तरफ शांतुनु एवम दूसरी तरफ उनकी पत्नी बैठती हैं . और कावड़ के डंडे को अपने कंधे पर लादकर यात्रा शुरू करता हैं . हैं .तीर्थ करते समय जब वे तीनों अयोध्या नगरी पहुँचते हैं, तब माता पिता श्रवण से कहते हैं कि उन्हें प्यास लगी हैं . श्रवण कावड़ को जंगल में रखकर, हाथ में पत्तो का पात्र बनाकर, सरयू नदी से जल लेने जाता हैं . उसी समय, उस वन में अयोध्या के राजा दशरथ आखेट पर निकले थे और उस घने वन में वह हिरण को शिकार बनाने के लिए उसके पीछा कर रहे थे, तब ही उन्हें घने जंगल में झाड़ियों के पार सरयू नदी से पानी के हल चल की आवाज आती हैं , उस हलचल को हिरण के पानी पिने की आवाज समझ कर महाराज दशरथ शिकार के उद्देश्य से तीर चला देते हैं और उस तीर से श्रवण कुमार के हृदय को आघात पहुंचता हैं जिससे उसके मुँह से पीड़ा भरी आवाज निकलती हैं  वे भागकर सरयू नदी के तट पर पहुंचते हैं, जहाँ वे अपने तीर को श्रवण के ह्रदय में लगा देख भयभीत हो जाते हैं और उन्हें अपनी भूल का अहसास होता हैं . दशरथ, श्रवणकुमार के समीप जाकर उससे क्षमा मांगते हैं, तब अंतिम सांस लेता श्रवण कुमार महाराज दशरथ को अपने वृद्ध नेत्रहीन माता पिता के बारे में बताता हैं और कहता हैं कि वे प्यासे हैं उन्हें जाकर पानी पिला दो और उसके बाद उन्हें मेरे बारे में कहना और इतना कह कर श्रवण कुमार मृत्यु को प्राप्त हो जाता हैं . भारी ह्रदय के साथ महाराज दशरथ श्रवण के माता पिता के पास पहुँचते हैं और उन्हें पानी पिलाते हैं . माता पिता आश्चर्य से पूछते हैं उनका पुत्र कहा हैं ?पुत्र की मृत्यु की खबर सुनकर माता पिता रोने लगते हैं और दशरथ से उन्हें अपने पुत्र के पास ले जाने को कहते हैं . महाराज दशरथ कावड़ उठाकर दोनों माता पिता को श्रवण के शरीर के पास ले जाते हैं . माता पिता बहुत जोर-जोर से विलाप करने लगते हैं, उनके विलाप को देख महाराज दशरथ को अत्यंत ग्लानि का आभास होता हैं और वे अपनी करनी की क्षमा याचना करते हैं लेकिन दुखी पिता शांतुनु महाराज दशरथ को श्राप देते हैं कि जिस तरह मैं शांतुनु, पुत्र वियोग में मरूँगा, उसी प्रकार तुम भी पुत्र वियोग में मरोगे . इतना कहकर दोनों माता- पिता अपने शरीर को त्याग मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं .तभी से सावन में कावड़ यात्रा की मान्यता है
देवघर भारत के झारखंड राज्य का एक शहर है। यह शहर हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल है। इस शहर को बाबाधाम नाम से भी जाना जाता है क्योंकि शिव पुराण में देवघर को बारह जोतिर्लिंगों में से एक माना गया है। हर सावन में यहाँ लाखों शिव भक्तों की भीड़ उमड़ती है जो देश के विभिन्न हिस्सों सहित विदेशों से भी भक्त यहाँ आते हैं। इन भक्तों को काँवरिया कहा जाता है। ये शिव भक्त बिहार में सुल्तानगंज से गंगा नदी से गंगाजल लेकर 105 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर देवघर में भगवान शिव को जल अर्पित करते हैं। लेकिन इसकी पहचान हिंदु तीर्थस्थान के रूप में की जाती है। माना जाता है कि भगवान शिव को लंका ले जाने के दौरान उनकी स्थापना यहां हुई थी। जिससे बाबा बैद्यनाथ का अभिषेक किया जाता है ऐसा माना जाता है कि रावण चाहता था कि उसकी राजधानी पर शिव का आशीर्वाद बना रहे। इसलिए वह कैलाश पर्वत गया और शिव की अराधना की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने रावण को अपना ज्योतिर्लिग दे दिया। और एक शर्त रखी कि रावण अपनी यात्रा को बीच में नहीं रोक सकता है और ना ही इस लिंग को कहीं भी नीचे रख सकता है। यदि यह लिंग लंका से पहले कहीं भी नीचे रखा गया तो वह सदा के लिए वहीं स्थापित हो जाएगा। देवगण अपने शत्रु को मिले इस वरदान से घबरा गया और एक योजना के तहत इंद्र ब्राह्मण बनकर ,ऐसा बहाना बनाया कि रावण ने यह लिंग उसे सौंप दिया। ब्राह्मण रूपी इंद्र ने यह लिंग देवघर में रख दिया। रावण की लाख कोशिशों के बाद भी यह हिला नहीं। रावण अपनी गलती को सुधारने के लिए रोज यहां आता था और गंगाजल से शिवजी का अभिषेक करता था लेकिन ऐतिहासिक रूप से इस मंदिर में जब बैजू नाम के व्यक्ति ने खोए हुए लिंग को ढूंढा था। तब इस मंदिर का नाम बैद्यनाथ पड़ गया। कई लोग इसे कामना लिंग भी मानते हैं। यहाँ पर साबन महीने में बड़ा मेला लगता है मान्यता है कि भगवान शिवजी सावन महिना में यहाँ बिराजते और भगवान शिव को गंगा जल अर्पित करते है। देवघर की यह यात्रा बासुकीनाथ के दर्शन के साथ सम्पन्न होती है।




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